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________________ अंक २] तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन १०३ र्शित करता था और न तिरस्कार ही। रास्तेम चलता हुआ वह संघ आगे, पीले और अगल-ब. गलमें, अर्थात् चारों ओर, हाथों में शन लिये हुप घोडे सवारीले संरक्षित रहता था। मार्गम जितने भी जीर्ण-शीर्ण मन्दिर और तालाव आदिजलाशय मिलते थे उन सबको ठीक-ठाक या नवीन बनवाता हुआ यह संघ चला जाता था। इस कारण उस रास्तंसे निकलकर जानघाले अज्ञात जनोंको भी चिरकाल तक उस संघके प्रयाणका परिचय मिलता रहता था। इसी तरह रास्तम जितने मन्दिर आते और उनमें जितनी जिनमूर्तियां होती थीं उन सबक्री पूजा-अर्चा करवाई जाती थी। एवं रीत्या प्रयाण करता हुआ ांतर और बाह्य दोनों प्रकारके शत्रुओं ऊपर जय प्राप्त कर .नेवाला यह महामंत्री ५-६ ही दिनमें शव॑जय पर्वतपर पहुंच गया था । इत्यादि। विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके अन्तिम भागम, सं० गुणराज नामका एक प्रसिद्ध धनिक श्रावक हो गया है जो कर्णावतीका निवासी था। उसने श→जय, गिरनार, भाव, राणकपूर, मांडव, ईडरगढ आदि मुजरात, काठियावाड, मेवाड, मारवाड, मालया, वागड इत्यादि देशांक प्रसिद्ध प्रसिद्ध ती. थोंकी या निमित्त बहुत बड़ा संघ निकाला था। इस संघमें मुख्य आचार्य तपागच्छक सामरंदर सरि थे।जन्हीके उपदेशसे यह संघ निकला था। इस संघका विस्तृत वर्णन सोमसोभाग्य नामक काव्यके व सर्गम किया हुआ है। काव्यका बनानेवाला कवि प्रतिष्टासोम स्वयं लोमसुंदर सूरिका हस्तदीक्षित शिष्य था। इस लिए उसका यह वर्णन प्रायःयांखों देखा कहा जा सकता है। जिज्ञासु पाटकोंको तो इस बारे में खुद उक्त का. व्य ही को पढना चाहिए। परंतु कुछ नमूना दिखानेके लिये उसके थोडेसे पद्य यहांपर भी दे दिये जाते हैं: दागरिकापर्व समाययों मुदा साम्राज्यदानप्रतिभूनिमं भुवि । श्रोतथियात्राकृतय कृती तदा महाद्यमं निमितवान् महेभ्यराट्।। सन्नीनियन्ते स्म मनोरथैः समं रथा महेभ्यः स्वगृहप्वयोमयाः । मुखासनप्रोद्धरसिंहविष्टरा दोर्ट गरिष्ठ भुवि तविधापितम् ॥ पर सहवाश्चतुरास्तुरंगमा आत्ता उदात्ता हृदयंगमाः पुनः। व्यघ्रियन्ते स्म मया महोमया अप्रेसरा वेगभृतां व सराः ।। महिम्मदश्रीयुतपातमाहिराट् सत्याभूतप्रीतमना मनीषिणम् । दिव्यांवरय किल पर्यधापयत् __कयाहिमुम्यः मह भूरिभिजनः ।। समार्पयद् द्वारगति निजां च तं __ वाद्यं नफेरीप्रमुखं नपोचितम् । पर महान् मुभटान् महोद्भटान् प्रोन्मादिनस्तानमितांश्च सादिनः।। श्रीतीर्थयात्रास्फुरमाणमीकितं ददी सदीनत्यकरं च यस्य तत् । स मार्गणप्राणिगणस्य कामितं संपूरयन् श्रीगुणराजमबराट् ।। भव्ये मुहंत पभावभाषितः संघान्त्रितः सवपुराच्चचाल सः। कुंभ: शुभाम्मोभरितोऽस्य संमुखी__ यभूव मार्गे सघवाशिरस्थितः ॥ इति प्रकृष्टेः शकुन: प्रमातिगैः संमृस्तित्वोज्ज्वलमंगलोदयः। श्रीवीरमग्राम इति प्रसिद्धिमृत् - पुरं यया श्रीगुणराजसाधुराट् ।। तस्मिन्मिलन्ति स्म पुरे नरेश्वरो धुरा नराः पुण्यपराश्चतुर्दिशाम् । प्रबद्धने स्मानयसंघ उच्चकै दिनंदिन वादिरिदेन्दुदर्शने ॥ देवालयाः श्रीनिलया दशाऽकशाः सविणदण्डश्वजकुम्भशामिताः । चमत्कताशपजगत्त्रया स्फुर. चित्रविचित्रविरशिल्पिकल्पितः ।। जैनन्द्रविम्वः सहिता महोच्छितास्तुईनयोः सुभगंभबिष्णवः।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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