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________________ ९० जैन साहित्य संशोधक [भाग १ पाई जाती । प्रत्युत, श्रुतसागरसूरिने अपने अध्य- "-ब्रह्मनेमिदत्तने धाराधना कथाकोशमें समयन विषयक अयवा टीकाके आधार-विपयक जिन न्तभद्रकी एक कथा दी है परंतु उसमें उनके किसी प्रधान ग्रन्थों का उल्लेख अपनी टीकाकी संधियोंमें भी गन्धहस्तिमहाभाप्यके नामकी कोई उपलब्धि किया है उनमें साफ तौरसे श्लोकवार्तिक और नहीं होती। सर्वार्थसिद्धिका ही नाम पाया जाता है. गन्धहस्ति- ६- संस्कृत प्राकृतके और भी बहुतसे उपलब्ध महाभाष्यका नहीं। यदि ऐसा महान् ग्रन्थ उन्हें ग्रन्थ जो देखनम आये और जिनम किसी न किसी उपलब्ध होता तो कोई वजह नहीं थी कि वे उस. रूपसे समन्तभद्रका स्मरण किया गया है उनमें का भी साथ नामोल्लेख न करते। भी हमें स्पष्टरुपले कहीं गन्धहस्ति महाभाष्यका २-आप्तमीमांसा ( देवागम) पर, जिसे गन्ध- नाम नहीं मिला । और दुसरे अनेक विद्वानाले जो हस्तिमहाभाष्यका मंगलाचरण कहा जाता है, इस इस विषयमै दयाफ्त किया गया तो यही उत्तर समय तीन संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक 'वसु- मिला कि गन्धहस्ति महाभाष्यका नाम किसी प्रानन्दिवृत्ति,'दूसरी अष्टशती और तीसरी'अष्टसहनी' चीन ग्रन्थम हमारे देखने में नहीं आया, अथवा हम इनसे किसी भी टीकामें गन्धहस्ति महाभाष्यका कुछ याद नहीं है। कोई नाम नहीं है, और न यही कहीं सूचित किया ७-ग्रन्धक नाममें 'महाभाप्य' शब्दसे यह है कि यह आप्तमीमांसा ग्रन्थ गन्धइस्ति महाभा- सूचित होता है कि इस ग्रन्थसे पहले भी तत्त्वार्थभाष्यका मंगलाचरण अथवा उसका प्राथमिक सत्रपर कोई भाप्य विद्यमान था जिसकी अपेक्षा अंश है । किसी दूसरे ग्रन्धका एक अंश होनेको इसे 'महाभाष्य ' संज्ञा दी गई है। परंतु दिगम्बर हालतमें ऐसी सूचनाका किया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक था। 'हुत कुछ साहित्यसे इस यातका कहीं कोई पता नहीं चलता कि समन्तभद्रसे पहले भी तत्त्वार्थसूत्र पर कोई ३-श्रीइन्द्रनन्दि आचार्यके बनाये हुए 'श्रुता- माय विद्यमान था। रही श्वेताम्बर साहित्यको वतार ' ग्रन्थमें भी समन्तभद्र के साथ, जहाँ कर्म , प्राभृतपर उनकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण एक बात, सो ध्वेताम्बर भई इस वातको मानते ही हैं उनका माँजदा तत्त्वार्थाधिगम भाग्य' स्वय सुन्दर संस्कृत टीकाका उल्लेख किया गया है वहाँ गन्धहस्ति महाभाष्यका कोई नाम नहीं है। बल्कि - उमास्वारिका बनाया हुआ है। परंतु उनकी इस इतना प्रकट किया गया है कि वे दूसरे सिद्धान्त मान्यताको स्वीकार करनेके लिये अभी हम तैय्यार प्रन्थ (कयाय प्राभूत ) पर टीका लिखना चाहते नहीं हैं। उनका यह ग्रन्थ अभी विवादग्रस्त है। थे परंतु उनके एक सधी साधुने न्यादिशुद्धि । उसके विपयमें हमें बहुत कुछ कहने लुननेकी जरूकर प्रयत्नोंके अभावसे उन्हें वैसा करनेसे रोक रत है। इस पर यदि यह कहा जाय कि बादको भाप्योकी अपेक्ष बहुत बडा होनेके कारण दिया। बहुत संभव है कि इसके बाद उनके द्वारा पा से महाभाप्य संज्ञा दी गई है तो यह मा. कोई बड़ा ग्रन्थ न लिखा गया हो। __-श्रवणबेल्गुलके जितने शिलालेखोंमें समन्त - नना पड़ेगा कि उसका असली नाम 'गन्धहस्ति भद्रका नाम आया है उनमेंस किसी में भी आचार्य भाप्य' अथवा 'गन्धहात्ति' ऐसा कुछ था! महादयक नामके साथ 'न्यहस्ति महाभाप्य'का ८-ऊपर जिन प्रन्यादिकोंका उल्लेख किया गया उल्लेख नहीं है । और न यही लिखा मिलता है कि है उनमें कहीं यह भी जिकर नहीं है कि समन्तउन्होंने नत्त्वार्थसूत्र पर कोई टीका लिखी है। हाँ, भद्रने ८४ हजार श्लोकपारमाणका कोई ग्रन्थ रचा उनके शिष्य शिवकोटि आचार्यके सम्बन्ध में इतना है और इस लिय गन्धहरित महाभाग्यका जो परि कयन जरूर पाया जाता है कि उन्होंने तत्त्वार्थ- माण ८४ हजार कहा जाता है उसकी इस संख्याकी सूत्रको अलंकृत किया,अर्धात उसपर का लिखी भी किसी प्राचीन साहित्यसे उपलब्धि नहीं होती। (देखो शिला लेल नं० १०५) ९-जव उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर ८४ हजार
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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