SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क ) जिनेन्द्र याकरण और आचार्य देवनन्दी ................. तक इनका कोई काव्य नहीं मिला है। कर्नाटक विद्यके गुरु थे । संभव है कि शब्दार्णपके कर्ता कविचरितके कर्ताने इनका समय वि० संवत् ये ही हो। ९५७ निश्चय किया है । क्यों कि हनके शिष्य देवे- शब्दार्णवकी इस समय दो टीकार्य उपलब्ध है द्रफे शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ९५९ में और दोनों ही सनातन जैग अन्धमालामें आप हुआ था और उसने ३९ वर्षकी अवस्था में अपने चुकी हैं-१ शब्दार्णवचन्द्रिका, और २ शब्दासुप्रसिद्ध कनडी काव्य भारतचम्पू और आदिपु- र्णवप्रक्रिया। राण निर्माण किये हैं। हमारा अनुमान है कि येही १-शब्दार्णवचन्द्रिका । इसकी एक बहुत ही गुणनन्दि शध्दार्णवके कर्ता होंगे। श्रवण येलगोलके प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रि४७ शिलालेखमें इनके सम्बन्धमे नीचे लिखे सर्च इन्स्टिट्यूटमें मौजूद है। यह ताडपत्रपर नागरी श्लोक मिलते हैं: लिपिमें है। इसके आदि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट श्रीगृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकापच्छः हो गये हैं। इसमें छपी हुई प्रतिमें जो गद्य प्रशस्ति शिष्योऽजनिष्ट रश्नत्रयवर्तिकीर्तिः । है,यह नहीं है । और अन्तमें एक श्लोक है जो मारित्रचन्चुराखलावनिपालमौलि भाधा पढ़ा जाता है-"मंगलमस्तु।.......इन्द्रश्चद्रमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥ ६ ॥ शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यन्मोवाचापिशतच्छियो गुणनन्दिपण्डितयति: चारित्रचक्रेश्वरः। लिरमरः काशस्लि.......शब्दपारायणस्योति।" तळव्यारणादिशास्त्रनिपुणः साहित्यविद्यापतिः ॥ ७ इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं। ये शिलाहार मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरघटासंघातकण्ठौरवो। घंशके राजा भोजदेव [द्वितीय ] के समयमें हुए भव्याम्भोजीदवाकगे विजयतां कन्दर्पदपापहः ।। है और अर्जुरिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक तच्छिष्यात्रिशतं विवेकनिधयः शास्त्राब्धिपारंगताः मामक जैनमन्दिरमें-जो कि महामण्डलेश्वर गंडतेपू-कृष्टसमा द्विसप्ततिमिताः सिद्धान्तशास्त्रार्थकाः॥९ रादित्यदेवका बनवाया हुआ था-उन्होंने इसे व्याख्याने पटवो विचित्रचरिताः तेषु प्रसिद्धो मुनि।। शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२६२] में पनाया मानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिकः ॥१. है। यह प्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है चन्द्रप्रभचरित महाकाव्यके की वीरनन्दिका और कोल्हापुर राज्यमें है । वादीभवनांकश समय शक संवत ९०० के लगभग निश्चित होता श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेयके वैयावृस्यले इस है। क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथकाव्यमें प्रन्थको रचना हुई है: "श्रीसोमदेवयतिनिर्मितिमादधाति उनका स्मरण किया है। और धीरनन्दीकी गुरु. या नौः प्रतीतगुणनंदितशंन्दवा । परम्परा इस प्रकार है-१ श्रीगुपनन्दि, २ विबुधगुणनन्दि, ३ अभयनन्दि और धीरनन्दि। यदि पहले नं. २५ सन १८८०-८८ की रिपोट । गुणनन्दि और पोरनन्दिके यीचर्म हम ७८ वर्षका २ ये विशालकीर्ति वे ही मालूम होते हैं जिनका उल्लेख अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही पं० आशाघरने अपने अनगारधर्मामृतको प्रशस्तिकी टीका शक संवत् ८२२ या वि० सं०९५७ के लगभग आ 'वादीविशालकीति' के नामसे किया है और जि. जायगा। इससे यह निश्चय होता है कि वारनन्दिः को उन्होंने न्यायशास्त्र में पारंगत किया था। पं० आशा- . की गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदिपंपके घर वि० सं० १२४९ के लगभग धारामें आये थे और वि० गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे और जैसा सं० १३०० तक उनके अस्तित्वका पता लगता है। किहम पहले लिख चुके हैं येही शब्दार्णवके फर्ता (देखो मनिर्मित विद्वदरममालामें 'पण्डित प्रवर माशाधर शार्षफलस ) अतः सोमदेवका वैयावृत्य करनेवाले विशालगुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् कार्ति इसरे नहीं हो सकते १० आशाधरके पाससे पढारती १०३७ [वि० सं० १९७२ ] में हुए हैं जो मेघचन्द्र वे दक्षिणक और चले आये होंगे।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy