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________________ ७० जैन साहित्य संशोधक [भाग १ शेपको अनावश्यक बतलाया है-" स्वाभाविक- होगा; कुछ भी हो, पर यह पूरा सूत्र 'दृश्यतेऽन्यः त्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भः । " ( १-१.९९) तोपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्रपाठके और इसी लिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण अ०४ पा०७ का ७५ वाँ सूत्र है । परन्तु शब्दार्ण'अनेकशेष' कहलाता है । चन्द्रिका टीकाके ववाले पाठमें न तो यह सूत्र ही है और न इसके कर्ता स्वयं ही " आदावुपज्ञापक्रमम्" (१-४.११४) प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई और ही सूत्र है। सूत्रकी टीका उदाहरण देते हैं कि " देवो. अतः यह सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपापज्ञमनेकशेपव्याकरणम्" यह उदाहरण अभयन- वही है जिसमें उक्त सत्र मौजूद है। न्दिकृत महावृत्तिमें भी दिया गया है। इससे सिद्ध ४-भटाकलंकदेवने तत्वार्थराजवार्तिकमे आये है कि शव्दार्णवचन्द्रिकाके कर्ता भी उस व्याक- परोक्ष (अ०१ सू० ११ ) की व्याख्याने " सर्वादि रणको देवोपज्ञ या देवनान्दकृत मानते है,जो अ- नाम112....५) सनका उलेवचि अ- सर्वनाम । " ( १-१--३५ ) सूत्रका उल्लेख किया नेकशप है, अर्थात् जिसमें 'एकशेप' प्रकरण है, इसी तरह पण्डित आशाधरने अनगारधर्मामृनहीं है । और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका तटीका ( अ ७श्लो० २४ ) में "स्तोके प्रतिना" अभयनन्दिने की है। (१-३-३७) और "भार्थ" (१-४-१४) इन आचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक दो सूत्रोको उद्धृत किया है और ये तीनों ही सूत्र (पृष्ठ २६५) से ' नैगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी जैनेन्द्र के अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही मिलव्याख्या करते हुए लिखते हैं-"नयश्च नयौ च न- ते हैं । शब्दार्णववाले पाठमें इनका अस्तियाश्च नया इत्येकशेपस्यस्वाभाविकस्याभिधाने दर्श- त्यही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशा चित्तथा वचनोपलम्माचनविरुद्धयते। धर इसी असयनन्दिवाले पाटको ही माननेवाले थे। इलमें स्वाभाविकताके कारण एकशेष की अना- अकलंकदेव वि० की नौवों शताब्दिके और आशावश्यकता प्रतिपादित है और यह अनावश्यकता धर १३ वीं शताब्दिके विद्वान हैं। जैनेन्द्रके वास्तविक सूत्रपाठमें ही उपलब्ध होती ५-० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णवचन्द्रिकाकी है। " स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भः ' भमिकामे लिखा है कि आचार्य पूज्यपादने स्वनि(१-१-९९) यह सूत्र शब्दार्णववाले पाटमे नहीं है, मित 'सर्वार्थसिद्धि' में 'प्रमाणनयैरधिगमः' अतः विद्यानन्द भी इसी सूत्रबाले जैनेन्द्रपाठको (१०१ सू०६) की टीका यह वाक्य दिया हैमाननेवाले थे । पाठकोको यह स्मरण रखना नयशव्दस्याल्पान्तरत्वात्पूर्वनिपातःप्राप्नोति नैषचाहिए कि उपलब्ध व्याकरणों में अनेकशेप व्याक- दोषः । अभ्यर्हितत्वात्प्रमागस्य तत्पूर्वनिपातः।" रण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं। और अभयनन्दिवाले पाठमें इस विषयका प्रतिपा ३- सर्वार्थसिद्धि ' तत्त्वार्थ सूत्रकी सुप्रसिद्ध दन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है । केवल अभयटीका है। इसके कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि नन्दिका 'अभ्यहितं पूर्व निपतति' वार्तिक है। हैं जिनका कि वनाया हुआ प्रस्तुत जैनेन्द्र व्याकर- यदि. अभयनन्दिवाला सूत्रपाठ ठीक होता तो ण है । इस टीकामें अध्याय५ सूत्र २४ की व्याख्या उसमें इस विषयका प्रतिपादक सूत्र अवश्य होता करते हुए वे लिखते हैं- 'अन्यतोऽपि' इति तलि जो कि नहीं है। पर शब्दार्णवत्राले पाठमें "अर्य" कृते सर्वतः । " इसी सूचकी व्याख्या करते हुए (१-३-११५) ऐसा सूत्र है जो इसी विषयको राजवार्तिककार लिखते हैं-" 'दृश्यतेऽन्यतो- प्रतिपादित करता है। इसलिए यही सूत्रपाट देवपीति' तसि कृते सर्वे| भवेपु सर्वत इति भवति ।" नान्दछत है । बस, पं० श्रीलालजीकी सबसे जान पडता है या तो सर्वार्थसिद्धिकारने इस बडी दलील यही है जिससे च शब्दार्णववाले सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा, या लेखका तथा पाठको असली सिद्ध करना चाहते हैं। इसके छपानेवालाने प्रारंभका 'दृश्यते' शब्द छोड दिया सिवाय वे और कोई उल्लेख योग्य प्रमाण अपने
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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