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________________ अंक २] कवि हो गये हैं । उन्होंने अमितगतिकृत धर्मपरीक्षांके आधारसे वि० सं० १२१७ के लगभग 'धर्मपरीक्षा' नामका ग्रन्थ कनडी भाषामें लिखा है । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में पूज्यपाद आचार्यकी वडी प्रशंसा लिखी है और वे जैनेन्द्रव्याकरण के रचयिता थे, इस बातका स्पष्ट उल्लेख किया है। साथ ही उनकी अन्यान्य रचनाओंका भी परिचय दिया है:-- जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी मरादे जैनन्द्रं भासुरं=एनल ओरेदं पाणिनीयक्के टीकं व रेदं तस्यार्थमं टिप्पणदिन् अरिपिदं यंत्र-मंत्रादिशास्त्रोक्तकरमं । भूरक्षणार्थे विरचिसि जसमं तादिदं विश्वविद्याभरणं भव्यालियाराधित पदकमलं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् | इसका अभिप्राय यह है कि व्रतीन्द्र पूज्यपादने - जिनके चरणकमलोंकी अनेक भव्य आराधना करते थे और जो विश्वभरकी विद्याओंके शृंगार थे-- प्रकाशमान जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की, पाणिनि व्याकरणकी टीका लिखी, टिप्पणद्वारा ( सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्रटीका) तत्त्वार्थका अर्थबोधन किया और पृथ्वीकी रक्षाके लिए. यंत्रमंत्रादि शास्त्रकी रचना की । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानावके प्रारंभ में देवनन्दिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है: अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । कलमगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ अर्थात् जिनकी वाणी देह धारियोंके शरीर, वचन और मन सम्बन्धी मैलको मिटा देती है, उन देवनन्दीको मैं नमस्कार करता है । इस श्लोक देवनन्दिकी वाणीकी जो विशेषता बतलाई है, वह विचार योग्य है । हमारी समझमें देवनन्दिके तीन ग्रन्थोंको लक्ष्य करके यह प्रशंसा की गई है । शरीरके मैलंको नाश करनेके लिए उनका वैद्यकशास्त्र, वचनका मैल (दोष) मिटाने के लिए जैनेन्द्र व्याकरण और मनका मैल दूर करनेके लिए समाधितंत्र है | अतएव इससे भी मालूम होता है कि वचनदोषको दूर करनेवाली उनकी कोई रचना अवश्य है और वह जैनेन्द्र व्याकरण ही हो सकती है । ६७ इनके सिवाय विक्रमकी आठवीं शताब्दि के बाद कनडी भाषामें जितने काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं, प्रायः उन सभीके प्रारंभिक श्लोकोंमें पूज्यपादकी प्रशंसा की गई है । इन सब उल्लेखोसे यह वात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि पूज्यपाद एक बहुत ही प्रसिद्ध ग्रंथकार हो गये हैं और देवनन्दि उनका ही दूसरा नाम था । साथ ही चे सुप्रसिद्ध जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ता थे। इस बातको इतना विस्तारसे लिखनेकी आवश्यकता इसी कारण हुई कि बहुत लोग पूज्यगाद और देवनन्दि को जुदा जुदा मानते थे और कोई कोई पूज्यपादको देवनन्दिका विशेषण ही समझ बैठे थे । जिनेन्द्रकी प्रत्येक हस्तलिखित प्रतिके प्रारंभ में नीचे लिखा लोक मिलता है: लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निश्वद्याऽवभासते । देवनन्दितपूजेशं नमस्तस्मै स्वयंभुवे || इसमें ग्रन्थकतने 'देवनन्दितपूजेशं' पदमें जो कि भगवानका विशेषण है, अपना नाम भी प्रगट कर दिया है । संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंके मंगलाचरणोंमें यह पद्धति अनेक विद्वानोंने स्वीकार की है। इससे स्वयं ग्रन्थकर्ताके वचनोंसे भी जैनेन्द्रके कर्ता' देवनन्दि ' ठहरते हैं । ॐ गणरत्न महोदधिके कर्ता वर्धमान (श्वेताम्ब १ देखो हिस्ट्री आफ दि कनडी लिटरेचर । * १ देखिए नतिवाक्यामृत के मंगलाचरणमें सोमदेव कहते हैं: " सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे || " २ आचार्य अनन्तर्य लघीयस्त्रयकी वृत्तिके प्रारंभ में महते हैं “ जिनाथशिं मुनिं चन्द्रमकलंकं पुनः पुनः । अनन्तवीर्यमानामि स्याद्वादन्यायनायकम् || " ३ भावसंग्रह में देवसेनरि मंगलाचरण करते हैं:पणमिय सुरणयं मुणिगणहरवंदियं महावीरं । वोच्छामि भावसंगहमिणमो भव्यपवोह || . 'शालातुरीयशकटाङ्गजचन्द्रगामिदिग्वभर्तृहरिवामनभोजमुल्याः । . *"
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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