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________________ ६५ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी को भगवत्मणीत बतलानेवाले विनयविजय और हमारा अनुमान है कि डॉ० कीलहानके हायमें लक्ष्मीवल्लभ विक्रमकी अठारहवीं शताब्दिमें यह 'भगवद्वाग्वादिनी' की प्राति अवश्य पड़ी होगी और इसीकी कृपाले प्रेरित होकर उन्होंने अपना विनयविजयजीके इस उल्लसने बडा काम किया पूर्वोक्त लेख लिखा होगा। उनके लेखमें जो श्लोकादि कि भगवत्प्रणीत व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र है। प्रमाणस्वरूप दिये गये हैं वे सब इसीपरसे लिये यह निश्चय है कि भगवत्प्रणीत व्याकरणको गये जान पड़ते हैं। अस्तु । ‘जनेन्द्र' लिखते समय उनका लक्ष्य इस डॉ० कीलहानके इस भ्रमको सबसे पहले प्रो० देवनन्दि या पूज्यपादकृत 'जैनेन्द्र ' पर ही रहा पाठकने दृरकिया था और अब तो जैनेंद्र व्याकरहोगा; परन्तु जान पड़ता है कि वे इस विषयमें उक्त णकी यहुत प्रसिद्धि हो चुकी है। उसकी या उसके उल्लंखके सिवाय और कुछ प्रयत्न नहीं कर सके। परिशोधित-परिवर्तित संस्करणकी कई टीकायें भी यह काम बाकी ही पड़ा रहा कि वह जैनेन्द्र व्याक- छप चुकी हैं। इसलिए अब सभी विद्वान् इस विषरंण लोगोंके समक्ष उपस्थित कर दिया जाय और यमें सहमत हो गये हैं कि जैनेन्द्र व्याकरण किसी भक्तजन अपने भगवानकी व्याकरणक्षता देखकर तीर्थकर या भगवानका नहीं किन्तु अन्य वैयाकगलद हो जायँ । ग्यशीकी बात है कि उनके कुछ रणोंके समान ही एक विद्वानका बनाया हुआ है ही समय बाद वि० सं० १७९७ में एक श्वेताम्बर और उनका नाम देवनन्दि या पूज्यपाद था। विद्वान ने इस कार्यको पूरा कर डाला-साक्षात् देवनन्दि अथवा पूज्यपाद । महावीर देवका बनाया हुआ व्याकरण तैयार कर श्रीगृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकांपच्छः दिया और उसका दूसरा नाम 'भगवद्वाग्वा शिष्योऽजनिष्ट भुवनत्रयवर्तिकीर्तिः । दिनी' रख्खा! चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिइस भगवद्वाग्वादिनी की सबसे पहली प्रतिके मालाशिलीमुखाविराजितपादपद्मः ।। १॥ दर्शन करनेका सौभाग्य हमें पूनेके भाण्डार- एवं महाचार्यपरम्परायां कर रिसर्च इन्स्टिट्यूटमें प्राप्त हुआ। यह तक्षक स्यात्कारमुदानिकततत्त्वदीपः। नगरमें रत्नर्पि नामक लेखकद्वारा वि० सं० १७९७ भद्रः समन्ताद्गुणतो गणोशः में लिखी गई थी। इसकी पत्रसंख्या ३०, और समन्तभद्रोऽजनि वादिसिंहः ॥२॥ लोकसंख्या ८०० है। प्रत्येक पत्रमें ११ पंक्तियां, नत:और प्रत्येक पंक्तिमें ४० अक्षर हैं । प्रति बहुत शुद्ध यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो है । जैनेन्द्रका सूत्रपाठ मात्र है-और वह सूत्रपाठ बुद्धया महत्या स जिनेंद्रबुद्धिः। है जिसपर शब्दार्णवचन्द्रिका टीका लिखी गई है। श्रीपुज्यपादोऽजनि देवताभिइस वाग्वादिनीके आविष्कारक अच्छे वैय्याकरण यत्पूजितं पादयुग यदीयम् ।।३।। दिखते हैं उन्होंने शक्तिभर इस बातको सिद्ध कर- जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परस नेका प्रयत्न किया है कि इसके कर्ता साक्षात् महा। सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जनाभिषेकाचकः । वीर भगवान हैं। दिगम्बरी देवनन्दीका बनाया छन्दः सूक्ष्माधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदाय विदाहुआ यह कभी नहीं हो सकता । उनकी सब युक्ति माख्यातीइ स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणेः॥४॥* याँ हमने इस ग्रन्थके परिचयमें-जो परिशिष्टमें दिया इस अवतरणके तीसरे श्लोकका अभिप्राय यह गया है-उद्धृत करदी हैं । उन सव पर विचार है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, वुद्धिकी करनेकी यहाँ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इस * ये श्लोक श्रायुक्त पं. कलापा भरमापा निटवेने सर्वार्धलेखको पूरा पढलेने पर पाठकोंको घे सब युक्ति- सिद्धिकी भूमिकामें सध्दृत किये हैं; पर यह नहीं सूचित याँ स्वयं ही सारहीन प्रतीत होने लगेगी। किया है कि ये कहाँके हैं।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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