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________________ ૨૦૨ RANAARA जैन साहित्य संशोधक [ भाग। एक दाखलो आपीशं. पांचमां पानामां नीचे प्रमाणे तेथी ए विषयना अभ्यासीने सहेलाईथी अर्थशान सत्र छ. थई शके तेम छे. 'उध्दृताश्चक्रिहरियुगाइजिनयतिदेश- आहि प्रसंगी एक जरा कडवी पण हितकर सम्यक्त्ववन्तः। वात सूचक्वानुं मन थई आवे छे के-सागरानंदआ सूत्रनी रचनामां जे खामी छे तेनो तोअमे अ.. . सूरि जेवा विद्वान अने प्रतिभाशाली मुनिए आजना जमानामां आवा अनावश्यक अने अनुपयोगी का. हिं निर्देश ज करवा इच्छता नथी.भापान्तरना विप - मोमां काळक्षेप करत्रो उचित नथी. समय घणो यमा ज अमारे थोडेक कहेवू छे. आ सूत्रनो शब्दा - बदलाई गयो छ. सर्वसाधारणनी आभिरुचि कोई र्थ अने विशेषार्थ नीचे प्रमाणे करवामां आव्यो छे. जुदा जविपयोना अभ्यास तरफ वधती जाय छे. 'शब्दार्थ-अनुक्रमे पहेली नारकी आदीथी । विद्वानोना अध्ययन-मनननुं साहित्य क्षेत्र भिन्नज नीकळेला चक्रवर्ती, बलदेव अने वासुदेव, आरहंत प्रकार थई रही छे. नवीन वातावरणमां उछरती केवली, सर्वविरति, देशविरति अने सम्यक्त्व बने केळवणी पामती प्रजानो आवी जातना लूखा, वाळा थाय छे.' नीरस, अनुपयुक्त, जूना विषयो तरफ अभिरुचि 'वि०-पहेली नारकीची नीकळेलो चक्रवर्ती वधे के श्रद्धा वेसे तेम बिल्कुल नथी. वर्तमान थाय, वीजी नारकीथी नीकळेलो जीव वासुदेव समयमा प्रत्यक्ष प्रमाणथी निश्चित भएला खगोल अथवा बलदेव थाय. श्रीजी वालका प्रभाथी नीक- अने भूगोलना सिद्धान्तो आगळ जगतना दरेक लो जीव तीर्थकर थाय.' इत्यादि. धर्मनाए विषयना जूना विचारो निस्तेज अने __ आ शब्दार्थ अने विशेपार्थनी वाक्यरचनायी अर्थहीन सावित थ्या छे, अने प्रत्येक धर्मना यहुतो वचकने एवोज अर्थावबोध थाय के पहेली श्रुत विद्वान् ते विचारोने अधिकांश कल्पना-प्रसूत नरकमांथी निकळेलो प्राणी चक्रवर्तीज थाय, बी. माने छ. जीमांथी निकलेलो बासदेव अगर बलदेवज थाय. तत्त्वार्थसूत्र में जाते कॉलेजियनो तेमज प्रेज्युएटत्रीजीमाथी निकळेलो तीर्थकर ज थाय. इत्यादि। डवलप्रेज्युएट जेवा उच्च शिक्षण पामेला अनेक परत यशानां परिशिपकारनो सानो सानो जैत-अजैन अभ्यासियोने तुलनात्मक भावार्थ द ना कहवानों जैन-अजैन अभ्यासियोने तुलनात्मक पद्धति भावार्थ एस नहिं हशे, कारण के तम होय तोते पण शीखव्युं अगर पंचाव्युं छे तेमां आवतो तदन असंगत गणाय. आ विषयमां शास्त्रकारोनो खगोल-भूगोल विषयक भाग केवळ विनोदनी अभिप्राय तो एत्रो छे के नरकमांथी निकळेलो खातर समजावतां पण मने घणो संकोच थतो जीव जो चक्रवर्ती पद प्राप्त करवाने योग्य होय तो हतो अने शीखनार तेवा एके एक सूत्र उपर सादते फक्त पहेली नरकमाथी ज निकळेलो होय छे. र उपहास व्यक्त करता हता. जो के हुँ केटलेक वासुदेव अगर वलदेव पदनी प्राप्ति पहेली अने वी- अंशे तेनुं समाधान अमुक पद्धतिए करी शकतो. जी एम यन्ने नरकमाथी निकळेला जीवोने होई परंतु यथार्थ समर्थन तो माराथी कोई पण प्रमाशके छ भने तेवीज रीते तीर्थकर पदनी प्राप्ति पहे- णथी न ज थई शकतुं. मने घणाक विद्वांनाएं तो ली, पीजी बने त्रीजी नरकसुधीमाथी निकळेला आवी खास सुचनाओ करी के के तत्वार्थसूत्रमाथा प्राणियोने थई शके छे. इत्यादि. आवी रोते वीजां आ विपयने लगतो विभाग काढी नांखी तेने पण घणां स्थल अर्थ-करणमां भूलो थयेली नजरे संक्षिप्त वनावधानी अवश्यकता छ के जेथी नवीपडे छे. आशा छे के बीजी आवृत्तिमां न शिक्षितोने आ विपयनी गंध सुधां न आंचे अने आ संबंधमा उचित लक्ष्य आपवामां आवशे. याकी तेथी तेमना मनम, आपणा पूर्वाचार्योनी बीजी एकंदर रीते परिशिष्टमा ए विषयनो सारो संग्रह अननुपमेय कृतियोनी प्रामाणिकताना संबंधमां थयो के अने साथे जे आकृतियो विगेरे आपी छे कोई पण प्रकारना कुतकों किंवा सन्देहो उत्पन्न
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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