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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 86 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 क्या? श्रावक तो चाहता है कि, हे नाथ! मैं दासी का पुत्र बन जाऊँ, लेकिन प्रभु आपकी दासता न भूल पाऊँ मैं वह चक्रवती नहीं बनना चाहता हूँ जिसने णमोकारमंत्र पर पैर रख कर अपने जीवन की रक्षा चाहीं हे नाथ! मैं वह धनी नहीं बनना चाहता हूँ जो पंचपरमेष्ठी को दुत्कार कर वैभव की प्राप्ति चाहता हैं संसार में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपायाय, साधु ये ही पंच शरणभूत हैं हे ज्ञानी आत्माओ! क्या अरहंतदेव के चरणों में तुम्हें इतना भय महसूस होता है, जो कि तुम जगह-जगह भटकते हो? अरे जब तक राग और मोह के बादल हैं, तब तक सबको चिंता होती है; जिस दिन मोह के बादल छंट जाते हैं, उस दिन अमूल्य शक्ति, दिव्य शक्ति प्रकट हो जाती है, जिसका नाम है सम्यग्दर्शनं भो ज्ञानी! जिसे अपनी आत्मा पर दया नहीं है, जो मिथ्यात्व का सेवन करे, वह कसाई हैं - भो ज्ञानी! जंगल में राम, लक्ष्मण, सीता जा रहे थें सीता कहने लगी- स्वामी! अब तो मेरे से एक दम भी नहीं रखा जाता, कंठ सूख रहा हैं ध्यान रखना, पानी ज्यादा मत फैलानां देखो, वे दिन भी देखने पड़ते हैं, जब कंठ में चुल्लू भर भी पानी नहीं मिलतां राजकुमारी, सम्राट की पुत्रवधु, बलभद्र की महारानी, नारायण की भाभी थी सीतां वह भी आज कह रही है: हे स्वामी! प्यास लगी हैं कर्म किसी को नहीं छोड़ते हैं इसीलिये तुम लाखों दान में दो या मत दो, पर किसी को चुल्लू भर पानी के लिए मना मत करना इस कारिका में आचार्य भगवन कह रहे हैं कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग हैं इसीलिये 'सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपादस्वामी ने लिखा है- चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती जीव उपचार से मोक्षमार्गी ही हैं पंडित टोडरमल जी लिख रहे हैं कि मोक्षमार्गी होसी यानी मोक्षमार्गी होगा, क्योंकि अभी तीनों की एकता (रत्नत्रय) इसके पास नहीं हैं मोक्षमार्ग पर लग तो गया है, इसलिये मोक्षमार्गी ही हैं पूर्ण-मोक्षमार्गी तब ही बनेगा जब रत्नत्रय की प्राप्ति होगीं सम्यक्दर्शन होते ही जितना ज्ञान था, वह सम्यग्ज्ञान हो जाता है और जो आचरण चल रहा था, वह सम्यक् आचरण हो जाता हैं ऐसा आचार्य कुंदकुंद महाराज ने 'अष्टपाहुड' में लिखा हैं भो ज्ञानी! आपको यथाशक्ति सम्यक् - आचरण का सेवन करना चाहिएं सम्यक् आचरण से आशय है। दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्त्व का पालन, अभक्ष्यों और सप्त-व्यसनों का त्यागं इसीलिये सबसे पहले यत्नपूर्वक सम्यक्त्व की उपासना करना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व - सहित नरक में निवास करना श्रेष्ठ है, पर सम्यक्त्व से रहित देव बनकर स्वर्ग में निवास करना उचित नहीं हैं जब तक सम्यक्त्व नहीं है, तब तक ज्ञान 'ज्ञान' नहीं है और चारित्र चारित्र नहीं हैं सागर सागर चातुर्मास में एकबार जेल में प्रवचन करने गयें अचानक घनघोर मूसलाधार पानी बरसां तब सारे कैदियों के मन में आया कि उठ जायें, पर जेलर ने अंगुली से संकेत मात्र कर दिया तो एक भी नहीं उठां प्रवचन चलते रहें मैं सोच रहा था कि एक अंगुली में क्या शक्ति थी जो एक भी नहीं उठां मनीषियो! वे अधिकार के पानी में बैठे थे, पर हमें श्रद्धा के पानी में बैठना हैं आचार्य समन्तभद्र Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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