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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 575 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 तुम्हारे पल्ले में निर्मल पुण्य नहीं हैं तो पिच्छी लेने के बाद भी पिच्छी नहीं रख पाओगे, क्योंकि संयम छूटने का मुख्य हेतु कषाय हैं चिढ़चिढ़े स्वभाव से अथवा अपनी बात को मनवाने की दृष्टि जिसके मन में आ गई, वह निर्मल चारित्र का पालन नहीं कर पायेगा जिनवाणी कह रही है कि उबलते पानी में व्यक्ति का चेहरा कभी नहीं दिखा, पर शीतल पानी में चेहरा दिख जाएगां कषायी जीव का संयम व्यवहार से संयम तो कहलायेगा, लेकिन संयम स्वभाव नहीं झलकेगां आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी कह रहे हैं कषाय की मंदता से पुण्य आता हैं जो जैन सिद्धांत को नहीं समझता, वह कहता है कि पूजा करने से पुण्य आ रहा है; उपवास करने से पुण्य आता है पर वास्तविकता कुछ और ही हैं यह सब क्रियाएँ कषाय को मंद करने के लिए हैं पूजन करना, यह निमित्त है, हेतु हैं; परंतु कषाय की मंदता से पुण्य का आस्रव होता हैं पुण्य के योग में पुण्य करोगे तो तुमको वह मुनि बना देगा और पापानुबंधी पुण्य कर लिया, तो तुम को दोषी नहीं, रोगी बना देगां इसीलिए आप लोगों का जो पुण्य इस समय चल रहा है, इस पुण्य को व्यर्थ ही बर्बाद मत कर देना 'पुण्य फला अरिहंता' पुण्य के योग से जीव मनुष्य बना, शुद्ध-रत्नत्रय का पालन किया और गुणस्थान बढ़ रहे हैं। देखना, पाप को क्षय करने के लिए, पुण्य को क्षय करने के लिए गुणस्थान बढ़ रहे हैं, परंतु पुण्य से ही बढ़ रहे हैं क्या गजब की बात है ? पुण्य से मतलब, पुण्य - प्रकृति अब पड़ी हुई है, उससे अब कोई प्रयोजन नहीं बचां अब तेरा अंदर का पुरुषार्थ चल रहा हैं अंदर के पुरुषार्थ के लिए पुण्य-द्रव्य चाहिएं पुण्य - द्रव्य एकत्रित होकर सत्ता में रखा हुआ है और अपना काम कर रहा हैं अब इसको भगवान् के रूप में फलित कराना है तो वह भी फलित हो जाएगा और निगोद भिजवाना है तो वह भी फलित हो जाएगां फिर भी ध्यान रखना, पुण्य ने मोक्ष नहीं दिया, तो मोक्ष रत्नत्रय धर्म ने दिया है उस रत्नत्रय धर्म के पालन के लिए तुम्हें पुण्य चाहिए अहो ! पुण्य-क्रिया अलग विषय है और पुण्य भिन्न विषय हैं पुण्य - क्रिया यानि पूजा करनां पुण्य भाव यानि मंद-कषाय, विशुद्ध-परिणाम और पुण्य - द्रव्य यानि पुण्य-कर्म का बंधं आप यहाँ बैठे हो, यह चल रही पुण्य - कर्म की क्रिया और जो आस्रव हो रहा है, वह पुण्य कर्म का आस्रव; जो बंध हो रहा है, वह पुण्य-कर्म का बंध जो आप मनुष्य बनकर भोग रहे हो, वह पुण्य कर्म का फल भोग रहे हों भो ज्ञानी! कषाय की मंदता पुण्य का हेतु है, फिर भी पुण्य मोक्ष का हेतु नहीं हैं साक्षात् हेतु शुद्ध-उपयोग हैं शुद्ध - उपयोग का हेतु है शुभ - उपयोग और शुभ - उपयोग से पुण्य आस्रव होता हैं इसलिए पुण्य आस्रव परंपरा से मोक्ष का हेतु हैं पर मोक्ष का साक्षात् हेतु न पुण्य है, न पापं आत्मा की शुद्ध - दशा ही आत्मा की शुद्धि का हेतु हैं शुभउपयोग वास्तव में शुद्ध दशा नहीं है, शुद्ध-उपयोग ही वस्तु-स्वरूप है, लेकिन जिसने अभी तक प्रवेश नहीं किया, उसे तुरंत पचाना कठिन होता हैं इसलिए उसको व्यवहार से समझना पड़ता हैं निश्चय तो शुद्ध-पंथ हैं देखो, अग्नि के संयोग से घी भी जलने लगता हैं भो ज्ञानी आत्माओ ! पुण्य कभी तुम्हें संसार में नहीं भटकाता है; पर पुण्य के साथ जो पाप - परिणति होती है, वह तुम्हें Visit us at http://www.vishuddhasagar.com - Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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