SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 571 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 लेकिन ध्यान रखना, इस शब्द से भी आस्रव मत कर बैठनां कुछ अज्ञानी व्यर्थ में आस्रव करते रहते हैं आस्रव किन-किन क्रियाओं से हो रहा है? उन क्रियाओं को मत करो तो आस्रव समाप्त हो जायेगां पाप-क्रिया न हो, इसलिए यह स्पष्ट कर रहे हैं, क्योंकि रत्नत्रय तो निर्वाण का ही हेतु हैं भो ज्ञानी! जो आपने मुनिव्रत का पालन किया, रत्नत्रय का पालन किया, उसमें आपने भगवान् को भी नमस्कार किया, वंदना भी तो की थी, प्रतिक्रमण-स्वाध्याय आदि भी तो किया थां उस शुभ-क्रिया के करने से शुभ परिणाम हुए, उन शुभ-परिणामों से जो आस्रव हुआ है वह देव-आयु को दिला रहा हैं जितने अंश में तुमने रत्नत्रय का पालन किया, वह देव-आयु का बंध नहीं कराता, अपितु वह तो निर्वाण का ही हेतु होता हैं न से (हथोड़ा से) जब कोई व्यक्ति पत्थर को तोड़ता है, तब यदि एक घन से वह नहीं टूटता तो बहुत घन लगाने पड़ते हैं, उसी-उसी स्थान पर लगाने पड़ते हैं, परंतु जब भी टूटेगा तो एक घन से ही टूटेगां ऐसे ही, मुमुक्षु आत्माओ! एक बार मुनि बनने से मोक्ष नहीं होता, लेकिन जब भी होगा मुनि बन कर ही होगां अतः तुम ध्यान की भट्टी में इस मन-रूपी लोहे को रख दोगे, उसके ऊपर से चारित्र के घन पटकोगे, तब शुद्ध आभूषण बन पायेगां परंतु ध्यान रखना कि धातु जैसी होगी, वैसा आभूषण बनेगां यह शुद्ध आभूषण की दुकान है, यहाँ लाख भरने वाला काम नही हैं बीच में जो अशुभ या शुभ उपयोग है, वह लाख हैं, तभी तो शुद्ध नहीं बन पाया, यही तो अपराध हो गयां इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि रत्नत्रय बंध का हेतु नहीं है, जो शुभ-आस्रव होता है, उससे देव-आयु का बंध होता हैं लेकिन जब तक तुम सिद्ध नहीं बने हो, तब तक नरक की अपेक्षा से देव-आयु श्रेष्ठ हैं धूप में तपने की अपेक्षा छाया में रहना अच्छा हैं इसलिए शुभ-उपयोग को छोड़ मत देना, पर दृष्टि यही रखना कि हमें शुद्ध-उपयोग की प्राप्ति हो और परम्-निर्वाण की प्राप्ति हों Divawa Jan Tample दिलवाड़ा मंदिर की कलात्मकता Sculptured Pillar Dilwara Jain Temple Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy