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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 565 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी ! तीर्थंकर प्रकृति और आहारक शरीर यह दोनों प्रबल पुण्य प्रकृतियाँ हैं यह सामान्य जीवों के बंध को प्राप्त नहीं होती हैं, प्रबल पुण्य चाहिए जिस जीव ने विशुद्ध भाव से सोलहकारण भावना को भाया है, वही तीर्थंकर प्रकृति का बंधक होता हैं अहो! दर्शनविशुद्धि भावना के अभाव में शेष पंद्रह - भावनाएं शून्य हैं; क्योंकि सम्यकृत्व अंक है, शेष सब शून्य हैं यदि अंक न हो तो उस शून्य की कोई कीमत नहीं हैं भो मनीषियो ! जहाँ-जहाँ अश्रद्धा होती है, वहाँ वहाँ संक्लेशता बढ़ती हैं जैसा जैसा श्रद्धागुण प्रकट होता है, वैसा-वैसा आनंद प्रकट होता हैं सिद्धांत है कि जैसे ही तुम्हारा दर्शन प्रकट होगा, कषाय तत्क्षण मंद होगी और अश्रद्धान जैसे ही प्रकट होगा, कषाय भी तत्क्षण प्रकट होगीं मिथ्यात्व के नष्ट होने पर पुनः मिथ्यात्व में आने में देर नहीं लगती, पर श्रद्धा के जाने पर श्रद्धा को बुलाने में बहुत समय लगेगां श्रद्धा एक बार चली गई उसको आप पुनः बना नहीं पाओगे, आप जीवन भर दुखी रहोगे, तड़फोगे, तरसोगे कि हे प्रभु! श्रद्धा के वे दिन कहाँ गये? और जैसे ही श्रद्धा प्रकट होती है तो आनंद ही आनंद प्रकट होता हैं इसीलिए अपूर्वकरण- परिणाम होता है कि मिथ्यात्व में भी जो अनुभूतियाँ नहीं हुईं, वे सम्यक्त्व के प्रकट होते ही अनुभूतियाँ होती है, इसी का नाम तो अपूर्वकरण हैं इसीलिए जीवन में मिथ्यात्व और अश्रद्धा को प्रकट कराने वाली सामग्रियों से दूर रहें परन्तु ध्यान से सुनना, देव शास्त्र, गुरु व वीतराग धर्म से तो तुमको जुड़कर चलना ही पड़ेगा, अन्यथा पूरी पर्याय खोखली निकल जाएगीं भो ज्ञानी! दर्शनविशुद्धि भावना कह रही है कि पच्चीस दोष हमने आपको गिना दिये हैं, लेकिन पच्चीस दोष तो संख्या के हैं, परिणामों के नहीं हैं जितने प्रकार के तुम्हारे परिणाम हैं, उतने प्रकार के दोष हैं जिनागम में विशालता की गणना अंकों में नहीं की जाती, प्रदेशों पर की जाती है, जो असंख्यात - लोक-प्रमाण हैं भो मनीषियो ! आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि तीर्थंकर प्रकृति - और आहारक प्रकृति, इन दोनों के बंध का हेतु सम्यक्चारित्र हैं क्योंकि मलीनता चारित्र में आती है, ज्ञान में नहीं आतीं ज्ञान तो ज्ञान होता हैं ज्ञान सम्यक् या मिथ्या नहीं होतां सम्यक्त्व के कारण सम्यक्त्वपना और मिथ्यात्व के कारण मिथ्यात्वपना कहा जाता हैं इसीलिए यहाँ सम्यक्त्व और चारित्र की चर्चा की है, लेकिन ज्ञान को बिल्कुल निर्दोष छोड़ दिया हैं देखो, किसी को किसी भी शास्त्र का ज्ञान नहीं है, पर वह तीर्थंकर - प्रकृति का बंध कर सकता हैं परंतु यदि सम्यक्त्व के एक अंग में भी दोष है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं कर सकता किसी को एक श्लोक का भी ज्ञान नहीं है, वह आहारक शरीर का बंध कर सकता हैं लेकिन सम्यक्त्व में जरा भी कमी है तो आहारक शरीर प्रकृति का कभी बंध हो ही नहीं सकतां दर्शनविशुद्धि भावना की कथा पढ़ लो, इसका नाम दर्शनविशुद्धि भावना नहीं हैं आठ अंगों से युक्त; षट अनायतनों, तीन मूढ़ता, आठ मदों से रहित; शुद्ध सम्यक्त्व में लीनता जा रही है और उससे युक्त विशुद्ध परिणाम बन रहे हैं तो उसका नाम दर्शन - विशुद्धि भावना हैं - - Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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