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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 553 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आत्मारूपी चंदन को छोड़ कर भाग जाते हैं इसलिए ध्यान रखना, भक्ति से कभी अधूरे मत रहनां जब तक भगवान् नहीं बन रहे हो, तब तक भक्ति तुम्हारे हाथ में हैं ध्यान रखना, सच्ची भक्ति ही सम्यकदर्शन हैं पर सच्ची भक्ति तभी होती है, जब श्रद्धा होती है और श्रद्धा तभी होती है, जब हमारा श्रद्धेय परम्-आराध्य होता हैं परम्-आराध्य पर श्रद्धा उसी की होती है, जिसकी कषाय और कर्म की प्रकृतियों का उपशमन होता हैं बिना सप्त प्रकृतियों के क्षय और क्षयोपशम के सम्यक्त्व नहीं होता अहो ज्ञानी! श्रद्धा तब होती है, जब श्रद्धेय तनिक दिख जाएँ जिनवाणी माँ कह रही है कि तुम्हारे आत्म-कूप में श्रद्धा का नीर है कि नहीं? उसमें भगवत्-भक्ति के कंकड़ को डालकर देख लो तो आवाज आ जाएगी कि पानी है कि नहीं यदि पानी नहीं है, तो आवाज नहीं आएगी जिनवाणी, जिनेन्द्र, निग्रंथ गुरुओं के चरणों में जिसकी श्रद्धा होती है, उसके मुख से नियम से आवाज आएगी ही-नमोस्तु! नमोस्तु! जैसे सूखे कुएँ में कितने ही पत्थर डालो, पता नहीं चलता है, ऐसे ही श्रद्धा से अंधे, श्रद्धा से विहीन जीवों के सामने साक्षात् तीर्थंकरदेव भी विराजमान हो जाएँ, तो उनके हृदय में कभी श्रद्धा झलकेगी नहीं भो ज्ञानी! भक्ति प्रकट कर रही है सम्यक्त्व को और सम्यकदर्शन प्रकट कर रहा है रत्नत्रयधर्म कों बेचारे मेंढक की तिर्यंच-पर्याय थी, इसलिए कमल की पंखुड़ी को मुख में दबाकर चल दियां परंतु पहुँच भी नहीं पाया कि गजराज के पगतले मृत्यु हो गयीं लेकिन राजा श्रेणिक के पहले ही वह मेंढक देव बनकर समवसरण में पहुँच गयां राजा श्रेणिक ने पूछा-हे अर्हन्तदेव! आज तक मैंने देवों के मुकुट में मेंढक का चिह्न अंकित नहीं देखां बैल, स्वस्तिक और मयूर के चिह्न तो देखे, मगर इन देव के मुकुट में मेंढक का चिह्न अंकित क्यों है? भगवान् की वाणी खिरी-हे श्रेणिक! इसे तुम देव मत कहों आप जब समवसरण की ओर आ रहे थे और नगर में सूचना की थी, तो एक मेंढक भी आ रहा था अंतरंग में तीव्र भक्ति की भावना थी, लेकिन पर्याय का दोष कि तुम्हारे गजराज के पगतले उसकी मृत्यु हो गयीं लेकिन शुभ परिणामों से मरण के कारण वह देव हो गया और अन्तर मुहूर्त में ही समवशरण में आकर खड़ा हो गयां अहो! राजा श्रेणिक को यहाँ तीव्र अर्हन्त भक्ति प्रकट हो गयीं यह सत्य है कि दूसरे की वाणी के माध्यम से अपने भाव भी निर्मल होते हैं भो ज्ञानी! मृत्यु से नहीं डरना, यही साधक की साधना है और मृत्यु का बोध हो जाए, इसी का नाम है सल्लेखना तथा रत्नत्रय में लीन हो जाना, इसी का नाम है समाधिं जन्म माँ के साथ हो सकता है, लेकिन आवश्यक नहीं कि मृत्यु के समय माँ बैठी हों जन्म देने वाली माँ जन्म के समय तेरे ऊपर हाथ फेर देगी. लेकिन ध्यान रखो, मृत्यु के समय एकमात्र जिनवाणी माँ ही हाथ फेरेगी मनीषियो! ध्यान रखो, आचार्य जिनसेन स्वामी ने 'महापुराण' में त्रेपन क्रियाओं का उल्लेख किया है, उसमें त्रेपनवी क्रिया निर्वाण की हैं अतः सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यकचारित्र मोक्ष के हेतु हैं इनसे बंध नहीं होता हैं बंध तो राग से होता हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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