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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 539 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 साथ कष्ट को सहन कर रहा है, कमों की निर्जरा कर रहा हैं यति जो बाईस परीषह सहन कर रहे हैं, यह हठयोग की साधना नहीं अपितु आत्म-योग की साधना हैं कष्टों के आने पर भी कष्टों को कष्ट स्वीकार नहीं करना, बाधाओं के आने पर भी बाध्य नहीं होना, वेदनाओं के आने पर भी विचलित नहीं होना-यह मुमुक्षु की प्रवृत्ति हैं एक-एक परीषह वे यति साम्य भाव से सहन करते हैं यद्यपि करुणाशील तो होते हैं, पर किसी की करुणा के पात्र नहीं होतें वे दयनीय स्थिति में नहीं हैं निग्रंथ तो हैं, एक धागा भी नहीं है, फिर भी गरीब नहीं आश्चर्य है कि जिनके पास तन पर वस्त्र हैं, समृद्ध हैं, उन्हें गरीब कहा जाता है और जिसके पास कोई वस्त्र नहीं है, वह अमीरों का अमीर है, जिसके आगे सारे लोक के सम्राट भी शीश झुकाते हैं इससे ध्वनित होता है कि वाह्यय-वैभव से अमीरी-गरीबी को मापना अज्ञानियों का काम हैं अहो ! अन्तरंग के पाप-पुण्य से ही गरीबी और अमीरी का मापदण्ड हैं जिसने पूरा वैभव छोड़ा, उसका समवसरण लग गया और जो वैभव को जोड़ रहा है, वह तृण-तृण को तरस रहा हैं इसीलिए अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि ऐसा काम करो, जिससे सिलना भी न पड़े, उलझना भी न पड़े और माँगना भी न पड़े तथा माँगने की दृष्टि भी न रहें मैं समझता हूँ कि जीवन में सबसे सुखमय जीवन किसी का है तो एक साधु, एक यति का हैं आपको कम से कम भोजन की चिंताएँ तो होंगी, पर यति को तो भोजन की भी चिंता या विकल्प नहीं हैं भो ज्ञानी! उपसर्ग अचानक आते हैं और परीषह बुद्धिपूर्वक स्वयं सहन किये जाते हैं किसी देव ने उठाकर सागर में पटक दिया, किसी तिथंच ने उपसर्ग कर दिया, किसी मनुष्य ने उपसर्ग कर दिया, अथवा कोई पर्वत आदि की चोटी से पाषाण सिर गिर गया-यह अचेतनकृत उपसर्ग हैं वे अचानक आते हैं, फिर भी धीर-योगी उनको सहन करते हुए खिन्न नहीं होते हैं वह परीषह जयी होते हैं वे स्वयं कष्टों को निमंत्रण देकर स्वयं सहन करते हैं अन्तर समझना दोनों में उपसर्ग/परीषह इसीलिए सहन करना चाहिए कि यदि कोई कदाचित उपसर्ग आ गया तो आप संयम से च्युत नहीं होंगें जिसने परीषह को सहन नहीं किया, वह विषमता के आने पर संयम को छोड़ देगां इसीलिए परीषह-जयी को ही उपसर्ग-विजेता कहा जाता हैं प्रत्येक तीर्थंकर के शासन काल में दस-दस मुनियों पर घोर उपसर्ग आता हैं उस घोर उपसर्ग को सहन करके वे निग्रंथ योगी, सिद्धालय या सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त होते हैं इन तीन कारिकाओं में आचार्य भगवान् ने एक साथ परीषहों का कथन किया हैं वह निग्रंथ योगी किस प्रकार से बाईस परीषह को सहन करते हैं तीव्र क्षुधा सता रही है, फिर भी यति किसी के सामने मन को मलिन करके यह नहीं कहते हैं कि आप मेरे लिए भोजन की व्यवस्था कर दों "पर घर जाएँ माँगत कछु नाहीं" दूसरे के घर में भी जायेंगे तो ऐसे, जैसे आकाश में विद्युत चमकती हैं किसी भी गृह-द्वारे से निकल जाते हैं, लेकिन किसी को संकेत नहीं करते हैं कि मुझे भूख लगी है, आप भोजन दो महिनों के महिने निकल जायें, फिर भी किसी श्रावक से समझौता इस विषय में नहीं करतें ग्रीष्मकाल की तीव्र तपन में भी पैदल विहार कर रहे हैं विहार करते-करते दिन-के-दिन Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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