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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 531 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 हुए कहा है कि न किंचना इति आकिंचन' संसार में जो दिख रहा है, वह सब बाह्य प्रदर्शन है, निज का कुछ भी नहीं हैं जो शरीरादि उपात्त है, उनमें भी संस्कार का त्याग करना आकिंचन्य हैं ज्ञानी जीव यहीं विचारता है कि न यहाँ पर कुछ है, न वहाँ कुछ हैं यहाँ-वहाँ कुछ भी नहीं यदि जगत् में विचार कर देखता हूँ तो कुछ भी नहीं यहीं सोचकर ज्ञानी सब त्याग कर देता हैं कहीं आचार्य भगवान् कुंदकुंद स्वामी ने "समयसार' जी में अज्ञानी जीव के विषय में बहुत ही सुंदर बात अण्णा मोहिमदी मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावो संजुत्तों 23 अर्थात् अज्ञान से ठगी हुई बुद्धिवाला संसारी प्राणी अपने साथ में मिलकर रहने वाला शरीर और पृथक गहने, वस्त्राभरण, धनधान्यादि पुदगल द्रव्य को अपना कहता है, नाना प्रकार की रागद्वेषआदि रूप कल्पना करता हैं यही अज्ञान-परिणति हैं हे आत्मन् ! तेरा स्वरूप तो मात्र ज्ञान - दर्शन है, फिर अन्य द्रव्य से तेरा संबंध कैसे बन सकता हैं निर्मोह / निर्ममत्व स्वभाव तेरा हैं तेरे में आडम्बरों के लिए स्थान कहाँ ? वीतरागता का मार्ग आकिंचन धर्म, जिसमें बहकर ही स्वावलंबी बना जा सकता हैं आकिंचन्य धर्म को धारण कर स्वावलंबी बन, क्योंकि परावलंबी जीवन जीना स्वात्मा की हत्या करना हैं वास्तव में पूर्णरूपेण आकिंचन्य धर्म श्रवण के ही संभव हैं 'होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं णि दु वहदि अणयारो तस्स अकिंचन्हं (वा. अनु.) जो मुनि निःसंग, निष्परिगृह, निर्ग्रथ होकर स्वपर को दुःख देने वाले सब प्रकार के राग-द्वेष, मोह भावों का निग्रह कर, निर्द्वद् भाव धारण कर मूर्च्छा-भाव का द्रव्य के साथ त्याग करता है, उसके ही आकिंचन्य धर्म होता हैं आकिंचन्य आत्म- पवित्रता का धर्म है, अतः इसे धारणकर पावन / पवित्र मंजिल प्राप्त करो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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