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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 53 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 जो प्राणों से अतिक्रान्त आत्मा है, वह ज्ञान का वेदन करती है, वह ज्ञान चेतना हैं सभी एक- इंद्रिय स्थावर-जीव कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतना तथा त्रस जीव कर्म चेतना भोग रहे हैं और प्राणों से अतिक्रांत शुद्ध परमात्मा में शुद्ध ज्ञानचेतना है भो ज्ञानी! चलो वनस्पतिकाय की चर्चा करें, क्योंकि आपको 'पुरुष' की बात करना हैं वनस्पतिकाय से पूछना कि तुम प्रत्येक हो कि साधारणं यदि साधारण है, तो माँ जिनवाणी आपसे कह देगी, बेटा! इसको छूना भी मतं जैन-योगी जब चलता है, तो पैर रखना महापाप मानता हैं अपने शरीर का ताप भी उसको नहीं देना चाहता है, क्योंकि मेरे शरीर से गर्म वर्गणाएँ (तरंगें-ऊर्जा ) निकल रहीं हैं तथा उन जीवों में इतने नाजुक तंतु हैं कि मेरे शरीर के ताप से उनको पीड़ा होगी, वध हो जायेगा, अहिंसा- महाव्रत समाप्त हो जायेगां अरे! ज्ञान-चेतना को भोगने की सामर्थ्य रख कर भी, फूलों को देखकर, कर्मफल-चेतना का बंध कर रहे हैं हे मानवो! तुम पुष्प की पराग को देखकर महक रहे हो तथा उसे बगीचे में लगाकर बार-बार निहार रहे हों अरे! जिनवाणी माँ कह रही है-तेरे चक्षु में वह शक्ति है कि यदि तू सिद्धों को निहार ले तो तू सिद्ध बन जायेगां निहारने का ही परिणाम है कि आज तुझे दुनियाँ निहार रही है, कि देखो, वनस्पति बन गयां भो ज्ञानी! यह मनुष्य-पर्याय इसलिए महान है कि तुम्हारे पास महाव्रती बनने की सामर्थ्य हैं हे मानवो! तुम महान इसलिए नहीं हो कि तुम्हारे पास इंद्रिय-भोगों का सुख हैं तुम महान इसलिए हो कि तुम्हारे पास पाँचों पाप छोड़ने की सामर्थ्य हैं देवों में वह सामर्थ्य नहीं हैं देखो, मुमुक्षु-जीव अहंन्त की उपासना करता है कि अब तो मेरी पर्याय समाप्त होने वाली हैं जितनी आयु शेष है, परमेष्ठी की आराधना कर लों मिथ्यादृष्टि देव रोना प्रारम्भ कर देते हैं कि हाय! हाय! अब यह भोग कब मिलेंगे? रो-रोकर अपनी पर्याय नष्ट करता हैं जितने उत्तम जाति के वृक्ष हैं, वे देव-पर्याय से च्युत होकर ही आये हैं हे मनीषियों! जब इंद्रिय-सुख में देव भी वनस्पति बन गया, तब तुम्हारी दशा क्या होगी ? स्थावर से नीचे यदि कोई भूमिका है तो 'एक श्वास में अठ-दस बार' मरने जीने की पर्याय है, उसका नाम निगोद हैं हे प्रभु! ज्ञान-वैराग्य शक्ति के प्रभाव से मैं ज्ञानचेतना का भोगी बनूँ , राग और भोग की दृष्टि से मैं कर्मफल चेतना का भोक्ता न बनें भो ज्ञानी आत्माओ! अब ईश्वर को और कर्मो को दोष देना बंद कर दों यदि पुण्य तेरे साथ होता है, तो तू माँ के आँचल में जन्म के साथ दूध लेकर आता है और यदि पाप तेरे थ होता है तो माँ को काल उठा ले जाता हैं तम माँ जिनवाणी के लाल हो, तीर्थंकर तेरे तात हैं और निग्रंथ गुरु तेरे भ्राता हैं ऐसे उज्वल कुल में तू जन्मा है और पुद्गल के टुकड़ों के पीछे तू भोगों की थाली पर बैठा हैं माँ जिनवाणी कह रही है-तुम सुन भर लो और गुन लो, गमाओ मत ! परन्तु जीव ने आज तक तत्त्व की चर्चा को सुना ही नहीं आचार्य योगीन्दु स्वामी ने योगसार ग्रंथ में लिखा है - Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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