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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 507 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 हैं पंचमकाल में लौकान्तिक देव भी तो बना जा सकता हैं आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने "अष्टपाहुड"(मोक्ष पाहुड) में स्पष्ट लिखा है अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंतिं 71 अर्थात् आज भी जीव रत्नत्रय से शुद्ध होकर निर्मल धर्मध्यान को आराधित करके लोकान्तिकदेव हो सकता है तथा फिर वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त करता हैं भो ज्ञानी! भगवान बनने की विद्या तो आज भी हैं प्रथा जरूर बंद हो गई है, लेकिन भगवान बनने की विद्या दूर नहीं हुईं इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि तप करो, लेकिन अपनी/निज की शक्ति को छिपाकर नहीं बैठ जानां शक्ति को विराधना में न लगाकर उसको साधना में लगा दो, विराधना में लगाओगे, तो लोक निंदा भी होगी, अपयश भी फैलेगां जिसका वर्तमान में ही जिस क्रिया से लोक-अपवाद हो रहा है, उसके भविष्य का परिणाम क्या होगा? जबकि साधना साध्य की सिद्धि के लिये हैं मुमुक्षु जीव विषयों के जंजाल से अपने आप की रक्षा करना चाहता है, उसमें झुलसना नहीं चाहता हैं अज्ञानी पतंगे की भांति दीपक के सामने जाकर झुलस रहा हैं वह तो असंज्ञी है, चौइंद्रिय है; पर आप तो संज्ञी पंचेन्द्रिय हो, ज्ञानी हों तुम विषयों के दीपक पर अपनी आयु को पूर्ण मत करो, अन्यथा तुम्हारे युवा अवस्था के पंख झुलस जाएँगें फिर-वृद्ध अवस्था में तुम उसी कीड़े की भांति तड़पोगें बस यही वृद्ध-दशा है, जब तुम्हारी सारी कामनाओं/ आशाओं का प्राण तो जीवित रहता हैं परन्तु बल पौरुष के पंख क्षीण हो जाते हैं नौकर / सेवक बात नहीं माने तो स्वामी को उतना कष्ट नहीं होता है, उससे कई गुनी वेदना पिता को पुत्र के व्यवहार से होती हैं नौकर को तुमने वेतन दिया, पर संतान को जन्म देने के लिए तुमने तन दिया और तन ही नहीं, धर्म भी दे डालां आज हालत यह हो रही है कि वृद्धों के आश्रम बन रहे हैं अरे! अपने घर का ऐसा माहौल बना डालो कि घर ही आश्रम बन जाएं और नहीं तो किसी मुनि-संघ के सान्निध्य में बैठकर अपनी सल्लेखना की दृष्टि बना लेनां भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आश्रम की चर्चा की हैं उन्होंने यति-संघ को ही आश्रम कहा है और निश्यचनय से निज स्वरूप में लीन हो जाना ही निश्चय आश्रम हैं पर ध्यान रखना, आप भूल नहीं करना, स्वतंत्र बनके रहना, लेकिन दर-दर पहुँचकर पंडा मत बन जानां किसी स्थान पर राग हो गया और सल्लेखना के काल में विचार आ गये कि मेरी समाधि के बाद वहाँ की व्यवस्था कौन देखेगा या फिर कभी तूने शुभ आस्रव कर लिया और उस शुभास्रव के काल में आर्तध्यान हो गया, तो वहीं का व्यंतर बनना पड़ेगा जिनवाणी में लिखा है - धर्मस्थानों पर आराधना करो, साधना करो, पर Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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