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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 455 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी! 'नियमसार की वाचना टीकमगढ़ में चल रही थी, आचार्यश्री क्लास ले रहे थें जब निश्चय - गुप्ति का कथन आया तो मैं यह नहीं समझता था कि निश्चय गुप्ति और व्यवहार-गुप्ति क्या होती हैं वहाँ तो सीधा कथन चल रहा था कि गुप्तियाँ ऐसे होना चाहिएं सिर हिल गया, शरीर में रक्त का संचार चल रहा है, आत्म प्रदेशों मे चंचलता चल रही है, तो 'काय गुप्ति गईं हम लोग कहने लगे- महाराज ! तो फिर साधु कहाँ बचें बोले-नहीं, पहले पूरी बात सुनो! यह निश्चय - गुप्ति का कथन हैं व्यवहार - गुप्ति से स्थिर रहना काय गुप्ति हैं कुचेष्टा नहीं करना विहार करते समय, काय गुप्ति होगी, ईर्या समिति से जो चल रहे हैं जब गुप्ति का पालन नहीं होता, तो समिति का पालन करते हैं; पर गुप्ति का अभाव नहीं है, वहाँ समिति का सद्भाव हैं सामायिक के काल में एषणा समिति होगी, अट्ठाईस मूलगुण रहेंगें लेकिन ध्यान रखना, क्रिया में एक ही होगां आपने एक गुप्ति का कथन समझ लिया और समिति को नहीं समझें इसलिए गुप्तियाँ भी हैं और समितियाँ भी हैं, और दस धर्म भी हैं - - भो ज्ञानी ! भक्तप्रत्याख्यान मरण की साधना के लिए जब साधक जाता है, तो बारह वर्ष की साधना एक-दो दिन में नहीं होगीं दो व्यवस्थाएँ हैं मुनिराज यदि समाधि लें तो स्वगण में भी कर सकते हैं आचार्य समाधि लें तो राजमार्ग यही है कि परगण में समाधि लें स्वगण यानि जिस मुनि संघ में हैं, वहीं पर - गण यानि दूसरा मुनि संघं प्रत्याख्यान - मरण की भावना से युक्त होकर एक आचार्य परमेष्ठी अपने निमित्त ज्ञान से, ज्योतिष सें (जैन सिद्धांत में ज्योतिष व तंत्र-मंत्र को मोक्षमार्ग में उपादेय स्वीकार नहीं किया व जैन सिद्धांत का खगोल व ज्योतिष वृहद् है और दसवाँ पूर्व इसी से भरा हैं 'करलक्खण' यानि हस्तरेखा ग्रंथ इसलिए लिखा है कि जब एक मुमुक्षु मोक्षमार्ग की इच्छा से आता है, तो मुझे उसे नख से शिख तक देख लेना चाहिएं यहाँ तक लिखा है 'भगवती आराधना' में कि यदि इस विषय का जानकार मिथ्यादृष्टि विद्वान भी है, तो उससे तद् विषयक जानकारी ले सकते हैं मुहूर्त विषय किसी के शास्त्र का नहीं हैं ज्योतिष विमानों का है, नक्षत्रों का है, तारों का हैं इसमें सम्यक्त्व या मिथ्यात्व नहीं होता) जब जान लेते हैं कि अब मेरा आयुकर्म नजदीक है, निषेक निकलने वाले हैं, तो वे आचार्य परमेष्ठी देखते हैं कि अब यह आचार्य पद भी मेरी समाधि का साधन नहीं हैं मैंनें बहुत दीक्षाएँ दे दी हैं अब तो सन्यास काल है, अब गणपोषण काल नहीं हैं योग्य शिष्य को बुलाएँगे और पूरे संघ में मुनि परिषद लगेगीं फिर आचार्य चर्चा करेंगे - हे यतियो ! वीतराग शासन जयवंत रहे, ऐसी चर्या करना ऐसा कोई कदम नहीं रखना कि कुल को कलंक लगें ऐसी भाषा सुनते ही अचानक साधुगण पिच्छी उठा लेते हैं और पूछते हैं- प्रभु! आज ऐसा क्यों कह रहे हैं आपं तब आचार्य कहते हैं- मैं चाहता हूँ कि संघ का संचालन सुनिश्चित व व्यवस्थित रहें इसलिए आप लोगों में से किसी को मैं बालाचार्य पद देना चाहता हूँ अभी नहीं कहा कि मैं सल्लेखना लेने जा रहा हूँ, क्योंकि उनके अहिंसा Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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