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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 453 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 उसी प्रकार से विष कि वेदना से, रक्त के क्षय से, श्वांस के निरोध से आहारपानी के न मिलने से, अतिशीत बाधा से, अतिउष्ण बाधा से वज्रपात इत्यादि कारणों से जो मरण होता है, उसका नाम है अकाल मरणं सल्लेखना 'आत्मघात' नहीं हैं अहो ज्ञानियो ! जब भी किसी जीव का अकाल मरण होता है, ध्यान रखना, आयु की पूर्णता की अपेक्षा से सुकाल ही होगां जो आयुकर्म एक सौ वर्ष चलने वाला था, उसके निषेक अंतर्मुहूर्त में क्षय हो जाते हैं, इस अपेक्षा से सुकाल है; लेकिन जो सौ वर्ष चलने वाले थे, इस अपेक्षा से अकाल मरण हैं उदयावलि में समय के पहले खिर जाना, इसका नाम है 'उदीरणा' तपस्या के द्वारा समय के पहले कर्मों का खिरा देना, इसका नाम है- अविपाक निर्जरां भो ज्ञानी! चावित का नाम 'कदलीघात मरण हैं 'च्युत आयु को पूर्ण करके मरण होता है त्यक्त वह सल्लेखना पूर्वक मरण होता हैं यह पंचम–काल दग्ध–काल हैं संहनन हीन है, परिणाम अति विशुद्ध नहीं हैं जीवों के उत्तम संहनन के अभाव में मनीषियो प्रायोग्य मरण और इग्नी मरण नहीं होता क्योंकि इस समाधि की साधना में क्षपक - अपने शरीर की स्वयं सेवा करता है, अपने शरीर की सेवा दूसरों से नहीं करवाता हैं पात्र को स्वयं उठाएँगें क्योंकि आपने मेरा कमण्डल ले लिया, विवेक की बात समझना, यदि मैं लेकर चलता और जब रखता तो मार्जन करके रखतां उपकरण मेरा है और आप कहीं भी रख देते हों आदान - निक्षेपण समिति स्वयं की होती हैं वे महान योगी किसी को अपना कमण्डल भी नहीं देते हैं किसी को शरीर से स्पर्श नहीं होने देते हैं जब थकेंगे तो स्वयं के हाथ-पैर नहीं दबाएँगें शरीर का काम शरीर का है, मेरा काम मेरा हैं इसको एक बार भोजन दिया है, एक बार पानी दिया है, उससे काम लेना मेरा कर्त्तव्य हैं ऐसे उत्तम संहनन धारी, ऐसी साधना करने वाला योगी ही सर्वार्थसिद्धि और सिद्धालय में जाता हैं शेष योगी सिद्धालय नहीं जा पाएँगें सम्यकदृष्टि जीव का उसी भव से यह बाल-पंडित मरण हैं सामान्य अविरत सम्यकदृष्टि जीव का बाल-मरण होता है देशव्रती का बाल पंडित मरण होता हैं भो ज्ञानी! प्रायोग्यमरण में साधक न स्वयं अपने शरीर की सेवा करते हैं, न दूसरे से सेवा करवाते हैं इग्नी मरण में दूसरे से सेवा नहीं करवाते, स्वयं की सेवा स्वयं करते हैं यदि आवश्यकता पड़ जाए तो अपना पैर भी दबा सकते हैं आवश्यकता पड़ जाए तो तेल भी लगा सकते हैं थोड़ा समझना, क्योंकि लोगों के बीच में जो भ्रम है वह आगम के विपरीत हैं आगम के अनुसार तेल 'आहार' नहीं हैं इस भ्रम को निकाल देनां हमारे आगम भगवती आराधना जो समाधि का सबसे महान ग्रंथ है तथा गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में छह प्रकार के आहार की चर्चा हैं पहला आहार मानसिक आहार, दूसरा कवलाहार, तीसरा ओजाहार, चौथा लेपआहार, पाँचवा कर्मआहार, छठवाँ नो कर्मआहारं इसमें मनुष्य और तिर्यचों का जो आहार होता है, वह कवलाहार कहलाता हैं जो ग्रास तोड़-तोड़ कर लिया जाता है, वह 'कवलाहार' हैं देवों का जो आहार होता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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