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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 437 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 लेकिन इतना ध्यान रखना कि हमें कितना देना चाहिए, कितना नहीं? यह विवेक हैं मौसम के अनुसार निर्दोष आहार ही तो दवाई हैं यह विवेक नामक चौथा गुण हो गयां भो ज्ञानी! पाँचवाँ गुण है 'क्षमा' शांति से खड़े रहों गुस्सा आ रहा हो, तो दान मत देनां भाईचारे का भाव रखों आप ही आप दिये जा रहे हो, मुझे देने ही नहीं दे रहे हों कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जैसे द्वीपायन बनकर आ गये हों, परसुराम बनकर आ गये हों तुम्हारे घर में महाराज के आहार क्या हो गये जैसे महाराज तुम्हारे ही हों भैया! वह भी भक्तिपूर्वक आया हैं कुछ लोग शोधन कम करते हैं, शोरगुल ज्यादा करते हैं तुम भगो, तुम भगों भगाने की आवश्यकता नहीं, शोधन करने की आवश्यकता हैं कितनी भी भीड़ आ जाए, शोधन सही होना चाहिएं भीड़ से अंतराय नहीं होते हैं जबरदस्ती दान देकर पुण्य कमाने की भावना मत रखना, कुभोग भूमि में जाना पड़ता हैं सत्य गुण कहता है कि भूमि देखकर चलो, भक्ति में विवेक रखो, ईर्यापथ का ध्यान रखो, पवित्रता से युक्त होकर देनां भावों में पवित्रता रखना गुण है और देकर हर्षित होना, पश्चाताप मत करना, प्रमुदित होना, यह दाता के सात गुण हैं विधि पूरी यह है कि स्वयं का चौका हो, तब नवधा भक्ति बनेगीं भगवन्! कोई तो आ जातां कितनी भावना बना ली? जितने छठवें गुणस्थान तक जीव होंगे उन सबका पुण्य मिल गयां भाव खिन्न नहीं होनां कुछ लोग देने के बाद खिन्न होते हैं शक्ति से अधिक देने वालों के पास नवधा भक्ति होती ही नहीं हैं भो ज्ञानी! पहले पडगाहन करना चाहिए, उच्च स्थान देना चाहिएं कुछ संघों में आँगन में पूजा हो जाती हैं आँगन में पहले बैठ जाते हैं, फिर अंदर जायेंगे, फिर आहार शुरू होंगें लेकिन आप लोग जो प्रदक्षिणा लगाते हो, यह विशेष भक्ति का प्रतीक हैं इसलिए पहले तीन प्रदक्षिणा दी जाती हैं प्रदक्षिणा नवधा भक्ति में नहीं, विशेष भक्ति में होती हैं ऐसा नहीं कि पड़गाहन करके ले गये और शांत हो गयें फिर न्हें उच्च स्थान देना, फिर उनके पाद प्रक्षालन करना मुनियों की, आचार्य भगवन्तों की, उपाध्यायों की पूजा-अर्चना होती हैं नवधा भक्ति में नमस्कार भी एक भक्ति हैं कुछ लोग नमोस्तु नहीं करते हैं, अतः उनसे आहार नहीं ले सकतें मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार, जल शुद्ध है और बस आहार देना शुरूं उनसे बिलकुल आहार नहीं लेनां प्रश्न आ सकता है कि मुनि महाराज को अहंकारी कहना चाहिए, क्योंकि प्रणाम नहीं किया तो आहार नहीं ले रहें भो ज्ञानी! यह अहंकार नहीं है, भक्ति पूरी होना चाहिएं आपका वात्सल्य/स्नेह दिख रहा है, पर दूसरी ओर आगम भी हैं नमस्कार करने के बाद पहले आप शुद्धि बोल लो, फिर प्रासुक जल से हाथ धो लो, फिर ग्रास दों देनेवाले व दिलानेवाले दोनों को विवेक रखना चाहिएं भैया! Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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