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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 42 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 है, उसी मुख से पत्नी को बुलाता हैं परंतु क्या एक से भाव होते हैं? इसलिये स्त्री राग-द्वेष का कारण नहीं है स्त्री के प्रति राग-द्वेष की भावना ही विकार की भावना होती हैं माँ/पत्नि वह भी स्त्री थीं। भो ज्ञानी! स्त्री में विकार नहीं, स्त्री में राग नहीं, स्त्री में द्वेष नहीं, यह तेरी दृष्टि का दोष हैं वस्तु में दोष नहीं अहो! जब राग था तो व्यवहार था, जब वैराग्य है तो निश्चय है, भूतार्थ हैं भो चेतन! दृष्टि, दृष्टि हैं दृष्टि, वस्तु नहीं हैं यह सब विकारी भावों की दृष्टियाँ हैं शुद्ध भावों में न कोई दृष्टि है, न कोई वस्तु हैं एकमात्र मैं ही चिद्रूप व्यक्ति हूँ , इसलिये पुरुषार्थ करना पड़ेगां भो ज्ञानी! जो पुरुषार्थ को गौण कर रहा है, वह भी पुरुषार्थ कर रहा हैं जो पुरुषार्थ को नाश करने का विचार कर रहा है, जो निमित्त को उड़ाने की बात कर रहा है, वह भी निमित्त ही बन रहा हैं पुरु अर्थात् आत्मां 'वृहद द्रव्यसंग्रह' में आचार्य नेमिचंद्र स्वामी लिख रहे हैं पुग्गल कम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदों चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं । यह जीव अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों का कर्ता हैं भो ज्ञानी! यह धर्मशाला किसने बनवाई ? पुरुष ने या परमेश्वर ने ? देखो भटकना नहीं ऐसा कह दो - उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से यह जीव घटपट, मकान आदि का भी कर्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक-भावों का कर्ता हैं निश्चयनय से स्वभावों का कर्ता हैं परमशुद्ध निश्चय नय से न किसी का कर्ता है, न किसी का भोक्ता हैं मैं पर का किंचितमात्र भी कर्ता नहीं हूँ यदि कर्ता बने रहे तो रोते रहोगें जो-जो कर्ता है, वह-वह रोता है और जो अकर्ता है, वह कभी नहीं रोतां अस्पताल में एक बालक तड़फ रहा हैं एक पलंग पर, बगल में दूसरा बालक भी तड़फ रहा हैं बालक संज्ञा दोनों की हैं पहले बालक के लिये डाक्टर ने कहा-बस, दस/पाँच मिनिट का जीवन हैं पर आपको कोई असर नहीं हुआं वह डाक्टर पुनः लौटकर आया जिस पलंग पर आप बच्चे को लेकर बैठे थे और उसी भाषा का उपयोग किया, तो आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगें अहो! बालक तो दोनों थे, एक में तुम्हारा अपनत्व भाव छिपा था, दसरे में अपनत्व का भाव नहीं थां जहाँ कर्ता-भाव था, वहाँ तुम रोने लगें जहाँ कर्ता भाव नहीं था, वहाँ तुम चुप रहें। भो ज्ञानी! द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि दोनों की व्याख्या करते-करते पूरा जीवन निकाल देना, पर तुम द्रव्य की प्राप्ति कर ही नहीं सकतें मालूम चला कि वह द्रव्यदृष्टि सम्प्रदाय बन गयां द्रव्यदृष्टि खो गई और संप्रदाय की रक्षा प्रारंभ हो गई अहो! इस पर्यायदृष्टि को समझने में पूरी पर्याय निकली जा रही है, पर पर्याय Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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