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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 418 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 =परन्तु चारित्र मोह के उदयरूप होने के कारणं संयमस्थानम् = संयम के स्थान को अर्थात् प्रमत्तादिगुणस्थान कों न लभते = नहीं पातां मनीषियो! आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी ने अपूर्व सूत्र दिया है कि सम्पूर्ण विकारों का जनक असन हैं असन दृष्टि ही वासना दृष्टि हैं मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार शुद्धि ये चारों तेरे पास हैं, लेकिन जिसका व्यापार शुद्ध नहीं, उसका व्यवहार कैसा? उसका भोजन कैसा? अरे! भोजन की शुद्धि नहीं अर्थात् असन शुद्ध नहीं तो वसन शुद्ध कैसा? जिसके घर में बर्तन ही शुद्ध नहीं हैं, उसकी भाव शुद्धि कैसी? जैनदर्शन में ऊपरी शुद्धि की चर्चा नहीं की है, अपितु वाह्य शुद्धि के साथ-साथ अन्तरंग शुद्धि की भी चर्चा की हैं शुद्ध सोने की अपेक्षा कृत्रिम सोने में चमक ज्यादा आ सकती हैं अतः, आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि मोक्षमार्ग कृत्रिम मार्ग नहीं है, भूतार्थ मार्ग है, सोलह-ताव का शुद्ध सोना हैं आचार्य योगीन्दु देव 'परमात्म-प्रकाश' ग्रंथ में लिख रहे हैं-भो चेतन! जो तेरा स्वभाव है, वह तू कभी कह नहीं पायेगां इस कषाय के कारण तू जीवन में कसा जा रहा है और उसी परिणति में आज तू सन्तुष्ट हो गयां यानि व्यवहार में तू सन्तोष धारण कर रहा है, ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा को क्रोधी-आत्मा कहने में तुझे पाप नहीं लग रहा भो ज्ञानी! जिनवाणी में कहा है कि देव का अवर्णवाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता हैं 'योगसार' ग्रंथ कह रहा है कि इस देहदेवालय में आत्मदेव विराजा हैं इन कागजों के पृष्ठों को यदि कहीं हमने जमीन पर रख दिया तो वीतराग जिनेन्द्र की वाणी (द्रव्यश्रुत) का अवर्णवाद हैंकोई जीव ध्यान में लीन है, यदि उसकी तूने अवहेलना कर दी तो भावश्रुत का अवर्णवाद कर दियां एक छोटा सा शिशु भी तोतली आवाज में 'णमो अरिहंताणं बोले तो तुम सिर झुका लेनां क्योंकि उसके भाव अरहंत की वन्दना के हैं, उसकी वाणी अरहंत की वन्दना कर रही है और उसकी काया अरहंत की वन्दना कर रही हैं जो अरहंत की वन्दना कर रहा है, वह स्वयं वंदनीय हो चुका हैं जीवन में ध्यान रखना कि पुण्यात्मा जीव के भावों में अरहंत वन्दना उत्पन्न होती है और पुण्यात्मा जीव का शरीर अरहंत वन्दना करता हैं यदि अशुभ कर्म के योग में मिथ्यात्व की वंदना होती है तो असंयम की वन्दना होती है और जब अरिहंत वन्दना के भाव आते हैं तो अन्दर की क्रन्दना दूर होती है, अर्थात् संक्लेषता की हानि होती हैं भो ज्ञानी! कभी-कभी पुण्य-द्रव्य इकट्ठा होकर पापरूप में फलित होता हैं परिणाम देखना, एक तिर्यंच स्वर्ग मे देव हो रहा है और एक तिर्यंच नरक जा रहा हैं तिथंच ने संक्लेश- भाव से मरण किया, अतः नरक गयां इसीलिए गतिबंधक, गति दाता/प्रदाता कोई नहीं हैं गतिमान-मन ही गतिदाता है और गतिमान-मन ही गतिप्रदाता हैं गतिमान-मन ही नरक देता है, गतिमान-मन ही निगोद देता हैं इसीलिए मन Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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