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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 403 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 मनीषियो! तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी के शासन में हम सब विराजते हैं आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी ने सूत्र दिया 'आत्मा की पवित्रता, आत्मा की निर्मलता साधनों से नहीं, साधना से हैं जो साधनों में उलझा है, वह कभी साधना को प्राप्त नहीं कर सकतां साधना के साधन तो जीवन में अनन्त बार किये हैं, लेकिन साध्य की शुद्धि नहीं कि किसी ने अच्छे मंदिरों को देखा, किसी ने अच्छे गुरुओं को देखा, किसी ने पिच्छी-कमंडल को देखा, किसी ने देह को देखा, किसी ने सुन्दर नारियों को देखा; लेकिन, भो ज्ञानी! साध्य को भूल गयां अरे! साधनों की निर्मलता से साधना की निर्मलता नहीं है, साधना की निर्मलता से साध्य की निर्मलता हैं साधन बेचारा क्या करे, साधन की सीमा हैं साधन कहता है कि आपकी उपयोग करने की शैली निर्मल है तो हम आपका साध्य निर्मल कर देंगे, यदि उपयोग करने की शैली निर्मल नहीं है तो हम आपका कुछ नहीं कर पायेंगें अमृतचन्द्र स्वामी यही कह रहे हैं कि आपको निज 'समय' को समझने के लिए दो अथवा तीन समय सामायिक करना आवश्यक हैं ध्यान रखना, यदि आपको प्रति समय सामायिक करने का समय मिल रहा है तो उसे दोष मत मान लेनां हर समय साम्यभाव रखे जा सकते हैं और सामायिक प्रति समय की जा सकती हैं आचार्य भगवान् कह रहे हैं- उपवास करना, एकासन करना, रस का त्याग, यह सारी की सारी बहिरंग तपस्याएँ वास्तव में तो सामायिक हेतु समय निकालने के लिए की जाती हैं मुमुक्षु की दृष्टि से देखना, एक साधक का अपने उपयोग की निर्मलता पर लक्ष्य है, तो वह भोजन को महत्व नहीं दे रहा है, वह सामायिक को महत्व दे रहा है और एक जीव ऐसा भी है जिसे सामायिक में देर हो जाए लेकिन भोजन में देर न हों दोनों की पहचान करना कि मुमुक्षु कौन है? सामायिक करने के लिए भोजन का त्याग कर रहा है, ज्ञानी और भोजन के लिए सामायिक का त्याग जो कर रहा है, वह है अज्ञानी ज्ञानी-अज्ञानी की यही पहचान हैं अरे सामायिक का समय हो रहा है तो भोजन छोड़ देना चाहिएं दिन के बारह बजे (संधिकाल) में भोजन नहीं करना, यह तीर्थकर भगवान् की दिव्य देशना का काल हैं इस काल में भगवान् जिनेन्द्र की दिव्य ध्वनि खिरती है और एक पापी उसमें भोजन करता है, कितना अभागा हैं? भाग्य को निहार लेना कि हमारा कितना क्षीण पुण्य हैं भो ज्ञानी! तीर्थंकर के कल्याणक हुए हैं तो काल मंगल हो गया हैं उन्होनें दिनों को नहीं देखा, दिनों ने उन्हें देखा हैं वह काल सुमंगलभूत हो गया जिस काल में मंगलोत्तम शरणभूत तीर्थंकरों की आत्मा का अवतरण हुआं इसलिए काललब्धि नहीं आयेगी, पुरुषार्थ ही काललब्धि को खड़ा कर देगां भो ज्ञानी! संसार में भटकने के लिए बहुत पुरूषार्थ करना पड़ता है, लेकिन मोक्ष जाने के लिए मात्र बैठना पड़ता हैं देखो चौबीस तीर्थकर हैं, सब हाथ पर हाथ रखे हुए बैठे हुए हैं बस बैठ जाओ, कुछ मत करों यदि उस सादि अनंत काल तक बैठने की भावना हो, तो दिन में कम से कम दो घंटे बैठने लगों इसका नाम Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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