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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 400 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 लोग मोक्ष चले जातें यदि आप यहाँ से गए, तो आप यात्री कहलाते हो; परंतु जो शिवालय का यात्री है, उसने यात्रा का लक्ष्य बना लिया, इसलिए यात्री कहलाने लगां ऐसे ही जो मोक्ष-मार्ग पर चलने लगता है, वह मोक्ष-मार्गी है, अन्यथा सभी संसार-मार्गी ही हैं मनीषियो! शास्त्र के ज्ञान और अनुभव के ज्ञान में इतना ही अंतर होता है जितना कि प्रसूति कराने वाली धाय और जन्म देने वाली माँ में क्योंकि जो अनुभव-ज्ञान है, वह क्रिया के साथ होता है, अनुभूति के साथ होता हैं अध्यात्म की भाषा में अनुभव-ज्ञान यानि कि आत्मा का ज्ञान और वाह्य-ज्ञान यानि कि शास्त्रों का ज्ञानं शास्त्र-ज्ञान में कथन तो होता है, लेकिन अनुभूति नहीं होती है और आत्म-ज्ञान में कथन नहीं होता है, संवेदन होता हैं सामायिक के शास्त्र तो जीवन में कई पढ़ सकते हो और करोड़ों जीवन में पढ़ सकते हो, लेकिन जीवन में तुम सामायिक-चारित्र धारण नहीं कर सकते हों सामायिक-चारित्र के बत्तीस भव है, इससे ज्यादा कोई जीव सामायिक-चारित्र धारण नहीं करेगा लेकिन सामायिक-शास्त्र पढ़ने के लिए पता नहीं कितने भव लग जाएँ अतः, सामायिक-शास्त्र पढ़ने का नहीं है वह संयम धारण करने का हैं ___ भो ज्ञानी! हमारे यहाँ कितने ही गरीब श्रावक बंजी किया करते थे पैसे से गरीब जरूर थे, पर धर्म से कभी गरीब नहीं हुएं ऐसा है कि बंजी करते-करते रास्ते में मार्ग भूल गयां जंगल से निकल रहा था, अचानक उसके सामायिक का समय हो गया तो सामायिक करता हैं इसके बाद जैसे ही खड़ा होता है कि रास्ते में एक मुनिराज दिख गएं श्रावक के मन में भाव आए, अहो! इन योगी की पारणा किसी भव्य श्रावक के यहाँ होगी, मेरे तो पुण्य हैं ही नहीं, मैं कैसे इनको पारणा करा पाऊँगा? मैंने तो दर्शन कर लिए, अब यहीं बैठकर सामायिक करूँगां देखो, जैसी वर्गणाएँ होती हैं, वैसे भाव बनते हैं संत के चरणों में बैठकर भाव बदल गए और बंजी का ध्यान भूल गयां वहीं विश्राम कर लेता हैं सुबह बंजी करने चला जाता हैं अब तो रोज का नियम हो गया कि वहीं से निकलें, मुनिराज के चरणों में बैठकर सामायिक कर ली और देखना कि उस जीव ने इतना पुण्य संचित कर लिया कि पारणा का दिन जब आया तब वे मुनिराज ईर्यापथ शोधन करते हुए आ रहे थे वह श्रावक भी कलश लिये खड़ा था और सोच यही रहा था कि हमारे यहाँ तो कैसे संभव है ? मुनिराज की विधि भी यही थी कि कोई दुर्बल व्यक्ति हाथ में कलश लिए खड़ा होगा वहाँ मेरा आहार होगां विधि का विधान देखो, पड़गाहन कर लिया और तीन प्रतिक्षणा देते-देते रोक नहीं सका अपने भावों को, आँखों के नीर से पाद प्रक्षालन कर लियां आहार दिए और आहार देने के उपरांत एक क्षण को परिणाम में आ गया कि कहीं मेरी माँ न आ जाएं उसकी माँ दान देने से मना करती थीं एक क्षण के परिणाम प्रबल हो गएं उस दान के पुण्य-आस्रव से सेठ-पुत्र हुआ और उसका अकाल में अपहरण हो गयां एक अटवी में छोड़ा गयां उस अटवी से उसे उठाया गयां राजा की मृत्यु हो गयी तो नगर में उसको राजा बना दियां मुनिराज विहार करते नगरी से निकल रहे थे ये पुनः दर्शन करने पहुँचां प्रभु निग्रंथ वीतरागी मुनि को देखकर नमन Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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