SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 351 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 पश्चात् संयम का उद्भव होगा और संयम की स्थिरता जहाँ होगी, वहाँ वीतरागभाव का जन्म होगां पर संयम का नाम वीतरागभाव नहीं हैं संयम की स्थिरता, स्वरूप की निश्चयदशा का नाम वीतराग भाव हैं भो ज्ञानी! आत्मश्रद्धा का नाम सम्यकदर्शन हैं जिसके पास सम्यक्त्व नहीं है, उससे चारित्र की बात करना व्यर्थ हैं श्रृद्धा तो चारित्र नहीं है, पर श्रद्धा के बिना चारित्र नहीं होता, अन्यथा उमास्वामी महाराज को श्रद्धा को ही मोक्षमार्ग लिखना चाहिये थां वहाँ तो सम्यक्त्व से मोक्षमार्ग लिखा जाता हैं किंतु सम्यकदर्शन अकेला मोक्षमार्ग नहीं हैं सम्यक्त्व अर्थात् जैसा पदार्थ का स्वरूप है उसका वैसा श्रद्धानं पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ बोध सम्यज्ञान है और जैसा स्वरूप, है उसमें लीन होना यह सम्यक्चारित्र हैं भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे है कि श्रद्धा (सम्यग दर्शन) के चार चोर हैं- अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभं इन चोरों की नियुक्ति करने वाला है मिथ्यात्वं अहो! देखो, तेरे सम्यक्त्व-रत्न की चोरी हो रही हैं बात को गहरे में समझों आज तक भेदी के बिना डाके नहीं पड़तें भो चेतन! इस अनंतानुबंधी क्रोध को समाचार कौन देता है ? तेरा ही मिथ्याज्ञान-दर्शन है, क्योंकि मिथ्यात्व कोई बाहर का द्रव्य नहीं, वह भी तेरा कुटिल भाव है, और कषाय भी तेरा कुटिल-भाव है, असंयम भी तेरा कुटिल-परिणाम हैं अतः, जितना घातक मिथ्यात्व है उतना ही घातक असंयम हैं दोनों मोहनीय कर्म हैं अब आप असंयम का अथवा मिथ्यात्व का सेवन जानकर करो या अज्ञानता में करो, लेकिन कर्म-सिद्धांत कहता है कि मेरा काम तो आपको बांधना हैं लोक का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ मेरे सैनिक न खड़े हों आत्मा के प्रदेशों पर बध्य कर्म तो हैं ही, अबध्य कर्म भी विराजे हैं जैसे ही आपके राग-द्वेष रूप परिणाम हुए, तुरंत ही कर्म रूप परिणत हो गयें भो ज्ञानी! कर्मसिद्धांत कह रहा है यदि आपने हेय-उपादेय का विवेक रख लिया होता तो मुझसे बांधना-बंधना ही नहीं होतां आप अब कह रहे हो, जब अविवेक पूर्वक काम करके आ गये हे प्रभु! मैं तो सिद्ध स्वरूपी हूँ, यह अबध्य-दशा सिद्ध स्वरूपी के लिए नहीं, परंतु जिसने स्वयं के भाव बिगाड़े, उसको तो बंध होगां भो ज्ञानी! मत लो संयम, लेकिन असंयम के भाव आ रहे हों तो आप तो बस इतना सुना देना कि तुम कहाँ जा रहे हो ? किसके पास जा रहे हो ? किसका बिगाड़ने जा रहे हो? वह बिगड़े या न बिगड़े परन्तु तेरा ब्रह्मस्वरूप तो बिगड़ ही जाएगां अहो! जो साधना का माधुर्य है, जीवन का सच्चा सुख है, उसे अब्रह्म ने नष्ट कर दियां अरे! निज उपादान को नहीं सम्हाला, निमित्तों को दोष दे-दे कर हम पंचमकाल में आ गये, अब क्या विचार है? कर्त्तत्व भाव को छोडेंगें अबद्धिपूर्वक जो इष्ट-अनिष्ट होता है, वह तेरा भाग्य और बुद्धिपूर्वक जो इष्ट- अनिष्ट होता है, वह तेरा पुरुषार्थ हैं बिना पुरुषार्थ के भाग्य नाम की कोई वस्तु नहीं होती वर्तमान में जो तेरा भाग्य झलक रहा है, वह पूर्व का पुरुषार्थ हैं मनीषियो! पुरुषार्थ ही जब Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy