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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 348 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 तुम्हारे अंदर कर्कशता आ गयी, वहीं सब अपने आप छोड़ कर चले जाते हैं इसीलिए जीवन में किसी को अपना बनाना चाहते हो तो मधुरता लाना सीखों अहो! तेरी आत्मा का गुण तो मधुरता है, लेकिन तेरी भोगों की ज्वाला ने उस मधुरता को जला डाला जब तेरी दृष्टि भोगों पर हो, उस समय कोई भजन की बात करे तो, हकीकत बताना, कैसी कषाय भड़कती है? अपने भी पराये नजर आते हैं। भो ज्ञानी ! एक बार मैंने छोटी-सी कहानी पढ़ी थीं एक बालक अपनी प्रेमिका से मिलने जाता हैं वह कहती है कि ऐसे नहीं मिला जाता, पहले आप अपनी माँ का ह्रदय लेकर आओं वह जाता है और कहता है माँ! आज मुझे आपका ह्रदय चाहिये हैं माँ बोली क्यों? उसने पूरी बात बता दीं माँ कहती है कि जैसा तुम उचित समझों उस निर्दयी ने वासना के पीछे जन्मदेनेवाली जननी के हृदय को निकाल लियां दौड़कर जाता है और रास्ते में फिसलकर गिरता है तो माँ के ह्रदय से आवाज आती है-बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगीं वह प्रेमी जब प्रेमिका के पास पहुँचता है और कहता है कि लीजिए तो वह प्रेमिका कहती है- तू भाग जा मेरे सामने सें एक प्रेमिका के पीछे तू जब अपनी माँ के हृदय को चीर सकता है, कल यदि दूसरी प्रेमिका तुझे मिलेगी तो मुझे भी चीर देगां अहो! समझ में तब आयी जब कि माँ भी हाथ से निकल गई ध्यान रखो, वीतराग जिनवाणी माँ कह रही है- बेटा! मेरी बात मान लों इन परिग्रह के टुकड़ों में मत फँसो, एक दिन ऐसा भी आएगा जब यह भोग भी तुझे छोड़ देंगे और तू अकेला अग्नि पर झुलसेगा फिर माँ भी गई, प्रेमिका भी गई माँ जिनवाणी कह रही है कि सुन लो, समझ लो लेकिन मेरे आँचल को छोड़कर मत जाओं भो आत्मन्! तीव्र माधुर्य के स्वाद में तू इतना तन्मय हो गया कि निज-रस का भान ही नहीं रहां अरे! निर्मल-नीर-स्वभाव आत्मा का धर्म है, वही माधुर्य हैं क्रोध, मान, माया, लोभ यह तो सम्यक्दर्शन के चोर हैं आत्मा का पहला शत्रु मिथ्यात्व है, उस मिथ्यात्व के ये चारों चोर संयोगी हैं अनंतानुबंधी क्रोध, माया मान, लोभ यह चारों कषाय सम्यक्दर्शन को चुरा रही हैं, क्योंकि सम्यक् - दर्शन से बड़ा विश्व में कोई रत्न नहीं हैं "दंसणमूलो धम्मो", वह दर्शन धर्म का मूल हैं भो ज्ञानी यदि देव, धर्म, निग्रंथ गुरु, वीतरागवाणी के प्रति अश्रद्धान हो गया तो, भगवान् कुंदकुंददेव 'दर्शन - पाहुड (अष्ट पाहुड) में लिख रहे हैं- जो दर्शन से भ्रष्ट है, वह भ्रष्टों में भ्रष्ट हैं अरे! जिसका सम्यक्त्व गया, उसका तो भट्टा ही बैठ गयां सम्यक्त्व से भ्रष्ट का निर्वाण नहीं होतां एक बार कोई चारित्र से भ्रष्ट हो जाए तो पुनः चारित्र में उपस्थित होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, लेकिन सम्यक्त्व - विहीन को सिद्धि नहीं होतीं इसलिए एक - सौ - चौबीसवीं कारिका में आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने कह दिया- इन चोरों से रक्षा करो, पहरा लगा दो, ज्ञान का दीप जला लो और शील की बाढ़ लगा लो, संयम के सरदार खड़े कर दो, जिससे यह मिथ्यात्व का चोर अंदर प्रवेश कर ही न पायें दर्शनमोहनीय राजा बहुत चतुर है, वह कहता है कि इधर संयम का घात करो, उधर चारित्र का भी घात करों दो मुँह वाले Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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