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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 343 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 एक ही दृष्टि रहती है- जोड़नां पता यह चलता है कि संचित करके चल बसा और उपभोग किसी दूसरे ने कियां इसलिये जीवन में जीना है तो जीने की शैली से जीवन जीनां भो चेतन! जैनदर्शन में जीवन की शैली बाद में आती है, मरने की शैली पहले आती है; क्योंकि जैनशासन कहता है "जन्म - महोत्सव दुनियाँ मनाऐ, मृत्यु- महोत्सव जैनशासन मनाऐं " जो वर्तमान में समीचीन नहीं जी सके, उनकी मृत्यु नियम से असमीचीन ही होगीं बिलखते-चिल्लाते ही होगीं ज्यादा कुछ मत देखो, बस श्वान की मृत्यु को देख लिया करों कितनी लालसा है? खुजली पड़ रही है, परन्तु वासनायें नहीं छूट रहीं इसे गंभीरता से विचार करों भो चेतन! आचार्य भगवान् निर्ममत्व और ममत्व का स्पष्टीकरण कर रहे हैं "मूर्च्छापरिग्रह " सूत्र का दुरुपयोग करके आपने कह दिया कि ममत्व - परिणाम नहीं हैं और द्रव्य को जोड़कर रखां गरीबों तक के पेट काटे हैं द्वार पर किसान चिल्ला रहे हैं परन्तु सेठजी कह रहे हैं कि जाओ, अभी कुछ नहीं हैं दूसरी ओर श्रावक की दृष्टि देखना कि स्वयं इतना अच्छा भोजन नहीं करेगा, बच्चों को भी पुचकारकर बिठा देगा, लेकिन अपने आराध्य को अच्छी चर्या कराता हैं उसकी भावना देखो, सुबह छह बजे से लगे होते हैं आपके आवश्यक कर्त्तव्यों में 'तप' नाम का कर्त्तव्य तो चल रहा हैं फिर भी पात्र नहीं मिलते तो समता रखता है कि ठीक है तथा भावना भाता है कि आज नहीं तो कल पात्र अवश्य मिलेंगें कल करते-करते दिनों के दिन बीत जाते हैं, फिर भी श्रावक की परिणति निर्मल चल रही हैं एक घटना बतायें आपको कि एक व्यक्ति बीमार थें उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि यह मेरा फण्ड है, इसे मंदिर जी में पाठशाला संचालन के लिये दे देनां पत्नी ने समाज को बुलाकर फंड दे दियां किन्तु वहाँ आवश्यकता धर्मशाला की थीं अतः वह द्रव्य उसमें लगा दियां उस धर्मशाला में शादी होने लगी, किरायेदार रहने लगें आँखों में आँसू टपकाती महिला कहती है- "मैंने तो समाज को पाठशाला के लिए दिया था, क्योंकि मेरे पति ने यह कहा था कि जहाँ चैतन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा होगी, बच्चों में जिनवाणी के संस्कार आयें, वहाँ लगा देनां इसलिये आप जो भी काम करना, सँभल कर करना जहाँ का जो हो, वैसा करना" भो ज्ञानी! इसलिये करुणाबुद्धि से मैं कह रहा हूँ कि सब व्यवस्थाएँ देखना, लेकिन निर्लिप्त रहनां अपने घर में तो मंदिर का द्रव्य रखना ही नहीं ब्याज का भी तुम्हें लेना हो तो बाहर से ले लेना, क्योंकि धर्म का द्रव्य है, जो वास्तव में कषाय का कारण हैं पहले लोग व्यवस्थाएँ एक-दूसरे पर छोड़ते थे, भैया! आप देखों परंतु आजकल बेचारे मंदिर के पीछे लड़ते हैं, क्या बात है ? यह आयतन है, इनकी तो रक्षा करना चाहियें पर व्यवस्थाओं के पदों में मान का लोभ आ गया कि प्रतिष्ठा मिलेगीं लेकिन ध्यान रखो, कर्म-सिद्धांत कहता है कि मैं तुमको कभी नहीं छोडूंगा लोग समझते भी हैं कि मैं इतने दिनों से कष्ट में आ चुका हूँ, इतने दिनों से परेशानी में हूँ, कहीं न कहीं तो गड़बड़ी चल रही है, पर जॉक की तरह चिपके हैं मैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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