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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 328 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 परमेश्वर बनना है तो परिणामों को सुधारो, पर्याय को नहीं; पर्याय तुम्हारी स्वयं सुधर जायेगी भो ज्ञानी! षट् द्रव्य का परिणमन जहाँ होता है, उसी का नाम संसार हैं सिद्ध भगवान् संसार में ही हैं अतः, संसार से उदास मत होना, संसरण से उदास हो जानां ज्ञानी संसार से उदास नहीं होता, ज्ञानी संतति/भ्रमण से उदास होता हैं जो संसार से उदास होता है, वह संसार भ्रमण के कारणों को पहले ही छोड़ देता हैं यदि चार व्यक्तियों ने चार अच्छी बात कह दी तो संसार नजर आने लगता है, अन्यथा संसार असार हैं घर में कुछ हो गया हो तो द्वारे पर आकर बैठ गयें क्यों, भैया! क्या हो गया ? 'कुछ नहीं, सब असार ही है, सब स्वार्थ के हैं लेकिन कहीं बेटा आकर पाँव पड़ गया और दूध से भरा गिलास पकड़ा गया, तो तुम्हारी कोई ताकत नहीं है कि तुम उनसे कहलवा लो कि संसार असार हैं यह संसार तभी तक असार होता है, जब तक स्वार्थ की सिद्धि नहीं होती और स्वार्थ की सिद्धि होने लग जाये, तो लगता है कि सार ही सार हैं मनीषियो! जब तक सार या असार पर दृष्टि है, तब तक समयसार के पुजारी तो हो सकते हो, लेकिन समयसार नहीं हो सकतें भो चेतन! देखो कषाय कम हो गयी तो दिख नहीं रहीं, वासनायें कम हो गयीं तो दिख नहीं रहीं झूठ बोल रहे कि सत्य बोल रहे हो, यह क्या दिख नहीं रहा ? चोरी कर रहे हैं, पर समझ में नहीं आ रहा है, लेकिन पाँचवा पाप परिग्रह सबको बता देता है कि क्या हैं धिक्कार हो ऐसे परिग्रह को जो मेरे भगवान् को ढंके हुये हैं भो ज्ञानी! सम्यकदृष्टिजीव तो भोग को भोगकर कर्मों की निर्जरा कर रहा है, भोगों से निर्जरा हो रही हैं आचार्य भगवान् कुंदकुंददेव बड़ी सहज भाषा में लिख रहे हैं कि जैसे मछली को खाने के लिये जल में कोई दाना डालां वह दाना मछली को ही पुष्ट करता है, शंख या सीप पर प्रभाव नहीं डाल पाता, जबकि वह भी जल में हैं ऐसे ही संसार में तुच्छ भोगों की क्या बात करो? जो भोग नश जाये, उन भोगों की क्या बात करो ? संसार में विश्व का सबसे बड़ा कोई भोगी है, तो वह तीर्थंकर अरहंतदेव हैं, क्योंकि आप जो इंद्रिय-भोग भोग रहे हो, वह क्षायोपशमिक है, नाश होने वाला हैं पर तीर्थकर के भोग क्षायिक हैं भो ज्ञानी! नौ लब्धियों में क्षायिकभोग और क्षायिकउपयोग लब्धि भी हैं तीर्थांकर के भोगान्तराय-कर्म का क्षय हो चुका हैं जो समवसरण में पुष्प-वृष्टि होती है, वह तीर्थंकरदेव का क्षायिक उपभोग कहलाता हैं ऐसा भगवान् पूज्यपाद स्वामी व अकलंक स्वामी ने "सर्वार्थसिद्धि," व "राजवर्तिक" ग्रंथ में लिखा हैं तीर्थंकर जिनदेव क्षायिक-भोग भोगते हुए भी कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं, क्योंकि उनके मोह का अभाव हैं आगम यह कह रहा है कि भोग भोगने से निर्जरा नहीं होती तथा भोग भोगते हुये भी कर्म की निर्जरा हो सकती हैं ध्यान रखो, सविपाक निर्जरा तो हो ही रहीं चाहे तुम भोगो या न भोगो, लेकिन वो तो कर्म उदय में आकर खिर रहा हैं भोगों से अविपाक निर्जरा नहीं होतीं जो जीव क्षायिक-सम्यक्त्व से युक्त होकर बैठा है, या उपशम सम्यकदृष्टि है, या क्षयोपशम सम्यक्दृष्टि है, वह जीव किसी भी कार्य में लिप्त हो, लेकिन सम्यक्त्व का जो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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