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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 325 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 चलता है ? परिग्रहानंदी, रौद्र-ध्यान हैं आश्चर्य मत करना, एक ऐसे राजवैद्य थे, जो कह रहे थे कि सेठ जी! पहले पैसा दो, फिर उठाने देंगे पुत्र के शव कों ससुराल में रहकर वह वैद्य भी नगर का सेठ बन गयां पूरे नगर में खपरैल के मकान, परंतु वैद्य जी के तिमंजिले बने हुये थे देहात में संसार की दशा देखो कि कुछ ही दिन बाद मालूम चला कि वैद्य जी के पुत्र और पत्नि की मृत्यु भी हो गई और लोगों को सहन नहीं हुआ तो डाका डाल दियां फिर भी बहुत कुछ बचा, लेकिन देखते ही देखते जो नाती था उसने इतने कर्म किए कि मालूम चला कि ऋण ही ऋण सिर पर खड़ा हो गयां इसके बाद वह दिन मेरी आँखों में दिख रहा है कि जिस दिन उस भवन को बेचकर जा रहे थें यह है परिग्रह की दशां __ भो ज्ञानी! यह बात असत्य है कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ, यह सब पुद्गल का परिणमन हैं लेकिन तुम्हारे ममत्व का परिणाम क्या चल रहा है ? आचार्य कुंदकुंद देव की गाथा पुनः उच्चारित कर लो एक बार, कि "जिनेन्द्र के शासन में वस्त्रधारी को सिद्धि होने वाली नहीं है, वह तीर्थकर भी क्यों न हों नग्नता ही मोक्षमार्ग है; शेष सभी उन्मार्ग हैं इसलिए उन्मार्गों में मार्ग की खोज मत करने लगनां भो चैतन्य आत्माओ! आचार्य योगेन्दुदेव स्वामी 'परमात्म प्रकाश' ग्रंथ में कह रहे है कि जिसके हृदय में मृगनयनी निवास कर रही है, उसकी दृष्टि परमब्रह्म में हो, यह संभव नहीं हैं एक म्यान में दो तलवार नहीं होती इसलिए, व्यर्थ की बातें समाप्त करके उस परमब्रह्म की खोज करना है तो परिग्रह को छोड़ना पड़ेगां देखो, जब वज्रनाभि चक्रवर्ती दीक्षा लेने लगा तो बेटे को बुलाकर कहता है, बेटा! इधर आओ, मैं आपको यह राज्य देता हूँ पिताश्री ! आप क्यों छोड़ रहे हो ? बेटा! यह राज्य-समाज महापाप का कारण हैं जिसका कोई बैरी न हो, उसके बैरी बन जाएँगे अपने आपं बेटा बोला-आप मेरे तात हो और बैर को बढ़ाने वाले इस राज्य को मुझे दे रहे हो? अरे! पिता तो वह होता है जो पुत्र को पतन से बचा ले और आप मुझे पतन में डाल रहे हो ? प्रभो! जो तेरी समझ, वह समझ मेरी मुझे नहीं चाहिए आपका राज्यं जब तक ऐसी दृष्टि नहीं आयेगी, तब तक मूर्छा, परिग्रह हटनेवाला नहीं मनीषियो! 'मूर्छा परिग्रह': शब्द को न समझने के कारण ही सग्रंथ होकर अपने आप को निग्रंथ मानकर बैठ गएं चौदह उपकरण श्वेताम्बर आम्नाय में मुनियों के माने गये हैं लेकिन आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी को यह अभिप्राय स्वीकार नहीं थां श्वेताम्बर साहित्य में प्रसिद्ध ग्रंथ है कल्पसूत्रं जैसे आप पर्युषणपर्व में तत्त्वार्थसूत्र का पाठ करते हो, वे कल्पसूत्र का पाठ करते हैं कल्पसूत्र में जिनकल्पी को दिगम्बरसाधु स्वीकारा है और स्थविरकल्पी को श्वेताम्बर साधु स्वीकारा हैं परंतु जैनाचार्यों का ऐसा अभिप्राय नहीं हैं वह कह रहे हैं कि जिनकल्प यानि जो साक्षात् जिनेन्द्र की चर्या होती है, वह जिनकल्पी कहलाती है, जो पंचमकाल में संभव नहीं हैं पैर में काँटा चुभ जाये तो जिनकल्पी साधु कभी निकालेगा नहीं यह चातुर्मास विदिशा के शांतिनाथ जिनालय में नहीं होना चाहिए था, यह चातुर्मास किसी पर्वत अथवा वृक्ष के नीचे होना चाहिए था यह Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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