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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 317 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 अभुम्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमासितम् येन चित्रं नमस्तस्मै, कौमार ब्रह्मचारिणे 105 आ. शा. भो ज्ञानी! आचार्य गुणभद्र स्वामी ने लिखा है-'उस अभोगी ने भोग छोड़ दिये जिसने भोगों को जाना ही नहीं, उसने ही भोग छोड़ दिये थे वह पूर्वभव का योगी थां उस 'कुमार-ब्रह्मचारी' को मेरा नमस्कार हैं परंतु आचार्य योगेन्दुदेव स्वामी कह रहे हैं कि मैं उस कुमार ब्रह्मचारी, ऐसे निग्रंथ के चरणों का बलिहारी हूँ अहो ! उत्तम पुरुष वह होते हैं जो स्वात्म की चिंता करते हैं मध्यम पुरुष वह होते हैं जो चमड़ी और दमड़ी की चिंता में रहते हैं, लेकिन अधम वे होते हैं जो काम/भोगों की चिंता में जिया करते हैं और जो पर की चिंता में जिया करते हैं, वे अधमाधम हैं अब समझ लो अपनी-अपनी गिनती कहाँ आ रही हैं आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी कितनी करुणा-दृष्टि से कह रहे हैं कि आप तो दया की मूर्ति हो, करुणाशील हो, सम्यकदृष्टि हो, तो सुनो नौ कोटि जीवों का घात करने वाला भोगों की चिंता छोड़ नहीं पा रहा है, वह शुद्ध-उपयोग में कैसे विराजेगा? कैसे अनुभूति करेगा? अहो! आगम में देखो, बुरा नहीं मानना, जो लिखा है वही मैं बता रहा हूँ-अशुद्धि के चार दिनों में नारी को शूद्र-चंडालिनी की संज्ञा दी हैं उस समय भी तू ब्रह्म का पालन नहीं कर पा रहा हैं धिक्कार हो तेरे जीवन के लिए। ___ भो ज्ञानी! दिन संयम के लिए होता है, दिन साधना के लिए होता है, दिन पुरुषार्थ करने के लिए होता हैं कम से कम आज अपने मन में एक कायोत्सर्ग करके यहाँ से जाना कि मैं कुशील का सेवन दिन में तो नहीं करूँगां इतनी तो प्रतिज्ञा कर ही लेनां और इतनी भी नहीं कर पाओ तो आज अपने आप को अरिहंत-चरणों का भक्त कहना समाप्त कर देना हे शील आत्माओ! काम-पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं, धर्म-पुरुषार्थ ही सब कुछ हैं अहो! तुम्हारी दृष्टि तो अर्थ और काम पर टिकी है, इसके अलावा कुछ नहीं हैं परंतु ध्यान रखो, अर्थ भी पुण्य से मिलता है और काम भी पुण्य से मिलता हैं यदि वह तुम्हारे पास नहीं, तो न हैं रायपुर की घटना हैं एक सज्जन आये, बेचारे आँखों से आँस टपकाकर कहने लगे-मुनिश्री! मैं बहुत दुःखी हूँ मैंने पूछा-क्या बात है? महाराजश्री! अर्थ-लक्ष्मी भी गई और गृह-लक्ष्मी भी गई मैंने कहा-भैया! यह तो तुम्हारा परम सौभाग्य है, आप तो परम पुण्यात्मा हो गये कि राग की दृष्टि समाप्त हो गई, अब तो तुम चलो मुनि बन जाओं अरे! ऐसे भी संसार में जीव हैं जो मोह के भिखारी बने बैठे हैं घर में खाने को दाना नहीं है और प्रेम से कोई बोलता नहीं है, फिर भी बेचारे कामीपुरुष बनकर वासना में पड़े हैं अरे! सोचो तो, जैसे कोई व्यक्ति एक घड़े में तिल भर दे और लोहे का गरम -गरम लाल सरिया उस तिल से भरे पिण्ड में डाल देवे, तो उन तिलों की क्या हालत होती है? चट-पट, चट-पट सब झुलस जाते हैं इसी Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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