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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 307 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान् महावीर स्वामी की पावनपीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य कुंदकुंद देव ने अहिंसा व सत्य की चर्चा करते हुए कहा है कि सत्यता तभी होगी, जब निश्छल वृत्ति, निःकांक्षित दृष्टि और आस्तिक परिणति होगी आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि यदि वृत्ति की सत्यता नहीं है तो वाणी की सत्यता कुछ नहीं कर सकतीं यदि वृत्ति तुम्हारी सत्य है, तो वाणी की सत्यता में थोड़ा दम हैं एक व्यक्ति रोज चोरी करता हो और कहे कि मैं सत्य बोलता हूँ, परन्तु उसकी वृत्ति बता रही है कि वह सत्य पर चल नहीं पा रहा है, तो तुम बोलोगे क्या ? वास्तविकता यह है कि जिसकी वाणी में सत्यता है, अंतःकरण में सत्यता है, उसकी ही चर्या में सत्यता हैं भो ज्ञानी! सैंतालीस शक्तियों के कथन में सातवीं शक्ति का नाम है 'प्रभुत्व शक्ति' अहो ज्ञानी! जो स्वयं प्रभु है, तो धन-दौलत पर दृष्टि क्यों जा रही है? दिखाना चाहते हैं अरे! भोजन करने के लिए धन का संग्रह नहीं हो रहा है, दिखाने के लिए धन का संग्रह हो रहा हैं पेट भरने के लिए नहीं, पेटियाँ भरने के लिए कमाना पड़ता हैं अब तो बैंक भरे जाते हैं, विदेश में भेज देते हैं अनेक गरीबों के तन के वस्त्रों को आपने पेटियों में छिपाकर रखा है, अनेक गरीबों की भोजन की व्यवस्था को आपने गोदाम में छुपाकर रखा हैं अहो ज्ञानी आत्माओ! आवश्यकता से अधिक द्रव्य का जो संग्रह करके रखता है, वह दूसरे के उपभोग में अंतराय डालता हैं अहो! जिसने वैभव को जान लिया है, वह वैभव को तृण के समान छोड़कर चला जाता हैं जिसने वैभव को वैभव माना है, उसने वैभव को जाना ही नहीं हैं यदि विभूतियों में वैभव था, तो चक्रवर्तियों ने क्यों छोड़ा? धन में सुख था, तो तीर्थंकरों ने क्यों छोड़ा ? जन-परिजन में सुख था, तो वे जंगल में क्यों चले गये? अहो पिताश्री! चाबियाँ खनक रही हैं, तिजोरियाँ भरी हैं और बेटा दूसरे की दुकान में काम कर रहा हैं परंतु जब बेटे के मन में ईर्ष्या की झनकार होती तब एक दिन डाका डालने के लिए पिताजी के घर में प्रवेश करता हैं इसलिये प्रेम से दे दो तो चोरी तो न हो, ईर्ष्या तो न हो, शत्रुता तो न हों भो ज्ञानी! प्रभुत्व शक्ति आपसे कह रही है- ध्यान रखना, अखण्ड, अविनाशी, चिद्रूप- चैतन्य, टंकोत्कीर्ण , ज्ञायकस्वभावी, परमपारिणामिक चेतन सत्ता पर तेरा शासन चलता हैं ऐसा तू विभू हैं कहाँ पुद्गल के टुकड़ों का प्रभु बनने जा रहा है? अहो! आज से भूल जाना कि मैं गरीब हूँ गरीब वह है, जो धर्म से रिक्त हैं दरिद्र वह है, जो चारित्र से शून्य हैं भिखारी वह है, जो शील से समाप्त हो चुका हैं विभुत्व-शक्ति कह रही है कि आपके पास वह जिनगुण संपदा है, उसको भूलकर आप बाहर की संपत्ति मत माँग बैठना अहो चेतन प्रभु ! मैंने तुम्हें सम्राट बनाया और काम, क्रोध, मान, माया और लोभ यह लुटेरे चारों Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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