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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 294 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो मनीषियो ! लोक में शाश्वत रहनेवाला कोई द्रव्य है तो सत्य हैं पर जिसे नष्ट होना है, जिसको भस्म होना है, उसके पीछे हम सत्य को खो रहे हैं अरे! जिस देह का विनाश होना है, उसके संरक्षण में इतने तन्मय हो कि परमात्मा को भूल रहे हों भूल तो भगवान् ने भी की थी. पर तब भगवान् नहीं थे परंतु जिसने भूल को सुधार लिया, वह भगवान् बन गयां इसलिए जितने भगवान् बने हैं, सब भूल को सुधारकर ही बने हैं रहस्य को समझना, शुभाशुभ अनादि की भूल नहीं सुधरी होती तो उन्हें भी मुक्ति नहीं मिलतीं जिसका चिन्तवन निर्मल नहीं है, ज्ञान निर्मल नहीं है उसकी कोई भी क्रिया साकार हो ही नहीं सकतीं भो ज्ञानी ! पदार्थों से ज्ञान की प्रामाणिकता नहीं की जाती है, क्योंकि पदार्थ आज पीला दिख रहा है, कल नीला दिखेगा तो फिर ज्ञान कैसा होगा? जिनवाणी कहती है कि सम्यक्ज्ञान प्रमाण है और सम्यक्ज्ञान से जैसा पदार्थ है वैसा ही पदार्थ को जानना, पदार्थ का परिणमन जैसा हुआ वैसा पदार्थ समझना, यह ज्ञान की प्रामाणिकता पदार्थ को प्रमाणिक कह रही हैं जिसका ज्ञान प्रमाणित नहीं होता है, वह पदार्थ को सत्य नहीं कह सकतां इसीलिए ज्ञान से प्रत्याख्यान किया जाता है, परन्तु ज्ञान - प्रत्याख्यान का तात्पर्य ज्ञान का त्याग नहीं कर देनां जब भी प्रत्याख्यान होगा, ज्ञान से ही होगा, परंतु मिथ्या ज्ञान अथवा विपरीत - ज्ञान त्यागने योग्य ही होता हैं अहो! प्रभु से प्रार्थना कर लेना, भगवान्! मैं अज्ञानी बन जाऊँ जब तक अज्ञानी नहीं बनोगे, तब तक ज्ञानी भी नहीं बनोगें इसीलिए सम्यक्ज्ञान प्रत्याख्यान नहीं है, ज्ञान प्रत्याख्यान है, जो हमने वेशों का ज्ञान, कषायों का ज्ञान कर रखा है, उन सम्पूर्ण ज्ञानों से भगवन! मैं अज्ञानी हो जाऊँ मुझे ऐसा ज्ञान नहीं चाहिए जो अहम् को जन्म दें वे अज्ञानी श्रेष्ठ हैं, जो परमेश्वर के चरणों में झुके होते हैं तथा अन्दर भक्ति भी भरी होती हैं वह ज्ञान किस काम का जो भक्ति से रिक्त कर देता हैं इसीलिए अज्ञानी बनना पर अज्ञान - मिथ्यात्व में नहीं चले जानां पाँचों मिथ्यात्व में एक अज्ञान नाम का मिथ्यात्व होता हैं। भो ज्ञानी! सम्यकदृष्टिजीव अपनी चेतना से काम करता है ज्ञानवैराग्य शक्ति सम्यकदृष्टिजीव के नियम से होती हैं वह एक कदम भी चलता है तो ज्ञान से चलता है, एक कदम भी रखता है तो वैराग्य से रखता हैं हेय को जान लेना ज्ञान है और हेय को छोड़ देना, वैराग्य हैं वैराग्य ही चारित्र का जनक होता हैं वैराग्यशून्य ज्ञान व चारित्र खोखला होता हैं अहो संयमी ! वैराग्य की डोर तेरे साथ है, तो चारित्र की वह पतंग सिद्धालय की ओर है और यदि मन्जा टूट गया अर्थात् डोर टूट गई और पतंग उड़ाने वाले गुरु के हाथ से डोर छूट गई तो वह पतंग गड्ढे में गिर जायेगीं मनीषियो ! यह दशा चारित्र, वैराग्य एवं शिष्य के बीच की हैं माणिक्यनन्दि स्वामी महान न्याय-ग्रंथ "परीक्षामुखसूत्र" में लिख रहे हैं कि हिताहितप्राप्ति- परिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् 2 Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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