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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 270 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 निकलता हैं याद करो, अपने विद्यार्थी जीवन में जिस गुरु से आपने अध्ययन किया या जो अनुशासनप्रिय गुरु थे, विद्या का रस उनसे ही अधिक मिला, और जो स्वयं ढीले थे उस समय तो अच्छा लगता था कि अध्यापक कुछ नहीं कहते, लेकिन उन्होंने तुम्हारा जीवन बनाया नहीं, बल्कि बिगाड़ा हैं इसीलिए जिनवाणी कह रही है कि उस गुरु के चेले भी नहीं बनना जो स्वयं शिथिलाचार में डूब जाये और दूसरे को डुबा दें आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि धर्म की चर्चा में मधुरता की कोई आवश्यकता नहीं भो आत्माओ! शिथिलाचार में धर्म मानोगे, तो आपको अपने आप में ही हीन भावना आ जाएगी कि मेरे पास धर्म है कहाँ, मैं तो वाह्य लेप को किये हूँ? अहो! जीवन में व वाह्य लेप देर तक टिकता नहीं हैं धर्म के क्षेत्र में मायाचारी का धर्म बहुत समय तक टिकता नहीं, वास्तविकता नजर में आ ही जायेगी सोने के आभूषण चमकदार हों, यह आवश्यक नहीं सोना मिट्टी में भी मिला होगा तो भी सोना हैं वीतरागधर्म चमक दमक का धर्म नहीं है, वस्तुस्वभाव का धर्म हैं यहाँ ऊपरी चमक की कोई चर्चा नहीं है, यहाँ अन्तरंग परिणति की चर्चा हैं जिसके अन्तरंग में तीव्र हिंसा के भाव हैं, उसकी वाणी में भी शिथिलाचार हैं जिसका अन्तरंग हिंसा से शुष्क है, वह कभी हिंसा से समझौता नहीं कर पायेगां ध्यान रखना, तुमसे पालन जितना हो रहा सो ठीक है, लेकिन वाणी में कभी शिथिलाचार मत लानां इस शरीर के सुख, यश और ख्याति के पीछे आत्मख्याति को मत भूल जानां इस चर्म के शरीर में विराज कर अहम् में मत डूब जानां धर्म को अपने अनुसार चलाने का विचार मत करना, जितना बने धर्म के अनुसार चलने का विचार रखनां शरीर की तो वह दशा होगी ही, जो सबकी होना हैं जब तक राग रहेगा, तब तक राख ही होगी और जिस दिन राग चला जाएगा, उस दिन तू वीतरागता को प्राप्त कर लेगां तब राख नहीं होगी, कपूर की भाँति उड़ जायेगां निर्णय आपको करना हैं केवली भगवान् के शरीर को कोई जलाता नहीं है, उनका परम औदारिक शरीर होता हैं मात्र नख व केश अवशेष बचते हैं, सारा शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता है, परंतु रागियों का नहीं अहो! अपने शरीर के पीछे ही नहीं, पर-शरीर के पीछे भी कितने पाप कर रहे हो? पर-शरीरों की रक्षा के पीछे भी पर के शरीर का घात मत करों अनेक जीवों की रक्षा होगी, इसीलिए एक को मार दो, ऐसा भी मत करों जो खोपड़ी श्मशान घाट में पड़ी है, उससे खड़े होकर चर्चा करनां शत्रु की खोपड़ी हो या मित्र की, उससे भी चर्चा कर लेना तो समयसार दिख जायेगां हे मित्र! मैंने आपके पीछे पता नहीं राग के वश होकर कितने दुराचार किये, आपके साथ बैठकर कितने व्यसनों का सेवन किया; परंतु हुआ कुछ नहीं, अन्त में निर्णय कुछ नहीं निकलां चोरी गया धन मिल सकता है, परंतु निकला समय मिलनेवाला नहीं सागर में मोती मिल जायेगा, परंतु जो समय निकल चुका वह मिलनेवाला नहीं हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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