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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 258 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 करनेवाला सोचे कि यहाँ से जल्दी चला जाऊँ इस प्रकार तुम्हारी परिणति दूसरे के लिए सम्यक्त्व का हेतु भी होती है और दूसरे के लिए मिथ्यात्व का भी हेतु हो जाती है भो ज्ञानी! ध्यान रखना, मेरी चित्तवृत्ति ऐसी हो जो चैतन्य के चमत्कार को प्रकट करा दें मेरी वृत्ति ऐसी न हो कि मेरे कारण कोई दूसरा सम्यकक्षेत्र को छोड़कर असम्यक क्षेत्र में चला जायें अतः प्रभु से आप प्रार्थना करना, हे नाथ! अरिहंतदेव की वन्दना करने के भाव मेरे बने रहें; क्योंकि भोगों में जीव इतना अंधा हो जाता है कि भगवान् को भूल जाता है, वह सुकृत्य तथा यश के जीवन में सँभल नहीं पातां हे नाथ! यदि कहीं मुझे तिर्यंच-आयु का बंध हो गया हो, तो अब मैं तिथंच बनकर ऐसे क्षेत्र में जन्म लूँ जहाँ पंचपरमेष्ठी भगवान् के, जिनेन्द्र की वाणी के शब्द मेरे कानों में पड़ते रहें मनीषियो! एक वृत्ति छिद्रान्वेषी होती है और एक वृत्ति गुणान्वेषी होती हैं जिसकी प्रवृत्ति गुणों के खोज की होती है, उसे सर्वत्र गुण ही गुण नजर आते हैं और जिसकी वृत्ति छिद्रान्वेषी होती है, उसे छिद्र-ही-छिद्र मालूम होते हैं भो ज्ञानी! एक बार चार व्यक्ति बनारस से अध्ययन करके आयें उनके गुरुजी ने उन्हें बड़ी-बड़ी नीतियों का ज्ञान कराया था लेकिन नीतियाँ भी उसे ही काम आती है, जो नीतिवान् होता हैं यदि अंतरंग तुम्हारा नीति-कुशल है, तो ग्रंथ की नीति काम कर सकती है और स्वयं प्रज्ञा ही नहीं है तो लोगों ने नीतिग्रंथ तो पढ़े, विद्वान् बन गये; लेकिन बुद्धिमान नहीं बन पायें अहो! शास्त्रों से विद्वान तो बना जा सकता है, पर शास्त्रों से बुद्धिमान नहीं बना जा सकता हैं बुद्धि क्षयोपशम से होती है और प्रज्ञा स्वयं के प्रबल पुण्य से सहज प्राप्त होती हैं विद्या कहीं भी सीखी जा सकती है, क्योंकि वह कला होती है और बुद्धि कुशलता होती हैं यदि कुशलता नहीं है, तो एक-जैसे दो छात्रों ने वकालत पढ़ी, उनमें एक जज बन गया और दूसरा जहाँ था वहीं रह गयां यद्यपि ग्रंथ तो दोनों के समान थे, पर प्रज्ञा समान नहीं थीं पंडित शिखरचंद्र जी का नाम आपने सुना होगा, भिन्ड के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठाचार्य थें कहीं पढ़ने नहीं गये, घर में ही वह पढ़े 'रत्नकरण्ड-श्रावकाचार' और 'तत्त्वार्थ-सूत्र' का अध्ययन कियां जब प्रज्ञा जाग्रत हुई तो देश के ख्यातिप्राप्त प्रतिष्ठाचार्य बनें आर्यिका सुपार्श्वमति माताजी बाल विधवा हैं, चौथी क्लास तक पढ़ी हैं; पर 'राजवार्तिक' जैसे ग्रंथों की टीका की हैं अतः प्रज्ञा/कुशलता अलग है, विद्या अलग है, क्योंकि कुशलता सहज प्रकट होती हैं भो ज्ञानियो! गुरु ने शिष्यों को समझाया कि (1) जहाँ महाजन चलें, वहाँ चलनां (2) जिसमें छिद्र हो, उसे छोड़ देनां (3) डूबते हुए को सहारा दे देनां (4) यदि कोई तुम्हें कुछ दे, तो लेकर बाँट लेनां Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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