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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 246 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 चरण, चरण नहीं है और विचार, विचार नहीं हैं इसीलिए ध्यान रखना कि आज तक हमने जिनवाणी को बहुत सुना है, विचारों को बहुत सुना है, अब विचारों को विचारना हैं पर बेचारे विचारों को विचार नहीं पा रहे हैं, इसीलिए आचार से शून्य हो जाते हैं आचार्य योगीन्दुदेव सूरि ने 'परमात्म प्रकाश में बड़ा दयनीय शब्द लिख दिया-"अन्तरंग में विषयों की वासना चल रही है, बाहर में लोकलाज सता रही है, इसीलिये बेचारे दीन संसारी और दीर्घ संसारी मनुष्य संयम को धारण नहीं कर पातें "प्रभु ने दीन कह दिया, फिर दीर्घ कह दियां मनीषियो! सिद्धान्त ध्यान रखना कि-अभव्य जीव में भी भगवान् हैं फिर वो अभव्य कैसा? भव्य के भगवान तो प्रकट हो जायेंगे, लेकिन अभव्य के भगवान् कभी नहीं प्रकट होंगे, इसीलिए अभव्य है, पर भगवत-सत्ता तो उसके अन्दर भी हैं जिसके केवलज्ञान पर आवरण पड़ा हुआ है जो कभी हटेगा नहीं, उसे अभव्य कहते हैं और जिसके केवलज्ञान पर आवरण तो पड़ा है, पर नियम से हटेगा, उसका नाम भव्य हैं भो ज्ञानी! ध्यान रखना, कभी अपने आप को अभव्य मानना भी मतं अभव्य वे हैं जिनको श्रुत में प्रीति नहीं है, जिनदेव में प्रीति नहीं है, जिनवाणी में और निग्रंथ धर्म व गुरु में प्रीति नहीं है परन्तु जिनका इन सब में चित्त अनुरक्त है, वे भावी भगवंत ही हैं इसलिए भो मनीषियो! उत्साह भी भगवत्ता को उठा देता हैं जब एक क्षपक श्रमण रात्रि में कह उठा था कि प्रभु पानी चाहिए, भूख लगी है, प्यास लगी है तो आचार्य शांति सागर महाराज पहुँच गये नमोस्तु! आँख खुली तो क्षपकराज ने देखा कि प्रभु नमोस्तु कर रहे हैं भगवान! आप नमोस्तु मुझे कर रहे हैं? बोले-मैं तो यहीं खड़ा हूँ, आप तो सल्लेखना ले रहे हो, आप तो परमतीर्थ हों 'भगवती आराधना' में लिखा है सल्लेखना चाहे छोटे की हो रही हो, चाहे बड़े आचार्य महाराज की हो रही हो, यदि किसी जीव के सल्लेखना देखने के भाव नहीं आते हैं तो समझना कि उसकी सल्लेखना के प्रति प्रीति नहीं है, उसे समाधि के प्रति अनुराग नहीं हैं यदि आप सम्मेदशिखर की वंदना को जा रहे हो, उसको निरस्त कर देना, परंतु समाधि चल रही हो तो क्षपक के दर्शन पहले कर लेना, क्योंकि तीर्थ पुनः मिल जायेगा, यह तीर्थ गया सो चला जायेगां ध्यान रखना, उस समय आचार्य महाराज ने जैसे ही नमोस्तु किया और बोले-पानी चाहिए? नहीं चाहिएं देखो, नमोस्तु में कितनी शक्ति है कि मना कर दियां आचार्यश्री बोले-हे मुनिराज! रात्रि-काल का प्रायश्चित कर लो, कायोत्सर्ग कर लो, त्याग कर दों हाँ प्रभु! त्याग हैं अहो! स्थतीकरण के दोनों उपाय हैं, कभी डांटना, तो कभी पुचकारना और जब पुचकार के काम चल जाये, तो डाँटने की कोई आवश्यकता नहीं हैं भो ज्ञानी! मेरी समझ में तो नहीं आता कि मनुष्यों को डाँटा जाये, क्योंकि मनुष्य की परिभाषा बहुत ही उत्कृष्ट हैं जो मननशील हो, चिंतनशील हो, मनन ही जिसका धर्म है, चिंतन ही जिसका धर्म है और जो मनु की संतान है, उसे मनुष्य कहा हैं यदि मनुष्य को बार-बार डाँटा जाये, फटकारा जाये, तो वह मनुष्य तो है नहीं, करुणा का पात्र हैं यद्यपि मनुष्य की खोल में तो है, पर परिणति तिथंच है, क्योंकि जो घोर अज्ञानी Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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