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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 221 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 लेकर छह महिने घूमते रहें मर्यादा पुरुषोत्तम और क्षायिक- सम्यकदृष्टि जीव राम के चारित्रमोह की महिमा तो देखो ? कोई समझाता, तो कहते थे -तू मरे, तेरा भाई मरे, मेरे भाई को मरा कहते हो? उठाकर चल देते थें जब कषाय की सीमा पूर्ण हो गयी तो, अहो! आत्मबोध हो गया, प्रतिबोध हो गया कि यह मैं क्या कर रहा हूँ ? विदिशा के हे रामो! तुमको तो छह-छह भव नहीं, छह-छह काल नहीं, अनंतानंत भव बीत गएं यह तन मुर्दा है, तू तन की पीड़ा को अपनी आत्म-पीड़ा मत मानं छोड़ दो इस नशे को, क्योंकि भगवान् कह रहे हैं कि गौतम स्वामी से पूछ लेना-प्रभु ! आप अंतिम तीर्थेश के प्रधान गणधर-पद को प्राप्त किए हो, लेकिन जब तक आपको मद की मदिरा चढ़ी हुयी थी तब तक महावीर को आप भगवान् नहीं कहते थे आप शिष्य बनने नहीं आये थे, वह तो परमेश्वर की महिमा थी कि उनकी पावन तेजस्वी कैवल्य ज्योति को देखकर आपके मान का मद उतर गया और शिष्य बन गएं अहो! जिस जीव का तीव्र मिथ्यात्व का अथवा मान का उदय हो, उसका भगवान् जिनेन्द्र की वाणी को सुनने का मन नहीं करतां मारीचि को देखो, वह समवसरण से उठकर चला गयां ऐसे ही जिन जीवों की भवितव्यता बिगड़ चुकी है, वे धर्मसभा को भी छोड़कर चले जाते हैं भो ज्ञानी! जिस जीव के वर्तमान में परिणाम इतने कलुषित हो रहे हों, किसी केवली को परेशान करने मत जाना कि, हे भगवान! अब मेरी कौन-सी गति होनेवाली है ? बंधुओ! कषाय की तीव्रता से नरक का ही बंध होता हैं इसलिए अभिमान तो मदिरा के ही सन्निकट हैं किसी के असंयम को देखकर, किसी के दुश्चारित्र को देखकर आपको उसके प्रति ग्लानि आ रही है तो, मनीषियों! ग्लानि तो करो, मगर पापी से नहीं, पापों से करों ग्लानि प्राणियों से मत करों बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोयं जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोयं अहो! रावण बुरा, दुर्योधन बुरा, पर जिस परिणति से दुर्योधन बना है यदि वह परिणति आपके अंदर भी है तो, ध्यान रखो, आप भी वही हों आप रावण को बुरा कहते हो, परंतु केवली की वाणी में खिर चुका है कि वह तो भविष्य में भगवान् बननेवाला हैं भो ज्ञानी ! बुरा मत देखो और जो बुरा है उसे मत करों दूसरे की बुराई देखने की दृष्टि उसी की होती है जो वास्तव में अंदर से बुरा होता हैं दो चीटियों की कथा आप पढ़ चुके हो, सुन चुके हों जिसके मुख में नमक की डली थी, तो शक्कर का स्वाद भी उसे खारा ही आता थां अरे मुमुक्षु आत्माओ! इस मोह की मदिरा को तनिक तो निकाल दों Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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