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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 192 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 तिर्यंचो ने पूरी मायाचारी की थी तो तिथंच बने, पर आदमी की संज्ञा मायाचारीरूप नहीं हैं ये ध्यान रखना, हमारी प्रवृत्ति मायाचारीरूप होगी, तो परिणति हमारी यही होगी इसलिए हिंसा के भाव लाना भी हिंसा ही हैं अब सोचना कि मैंने चौबीस घंटे में कितनों का घात किया है? हे मुमुक्षु आत्माओ! जब रागादि विषय-कषायों से थक जाओ, तो यतियों के पास आकर सुख की राह खोजों जिसको सुख की चाह है, वह यतियों के पास जाकर खोज करता है कि इन्होंने सुख को कहाँ से प्राप्त कियां अरे! पाप के परिणामों के समय ध्यान रखो कि सिद्ध- परमात्मा का जो आकार है, वही मैं भी हूँ हे आत्मन्! पुरुषाकार में सिद्धाकार निहारों इसकी अवहेलना मत करों आगम में संस्थान-विचय नाम का धर्म-ध्यान है, उसमें लोक-संस्थान का विचार किया हैं 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में भी पुरुष आत्मा का लक्षण किया हैं वह आत्मा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि से रहित, उत्पाद-व्यय-धौव्य से युक्त, गुण-पर्याय सहित हैं अतः पाप की परिणति निकालो, निर्मल भाव करों भगवन्! जब आप ग्रंथ लिख रहे थे, उस समय यदि हम निग्रंथ बनकर पास में बैठकर उन आचार्यों को देखते तो कितना आनंद आता? किसी भी कृति में गुणीजन अपना नाम, अपनी पहचान नहीं करातें आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने भी अपना नाम नहीं लिखा, पर 'ज्योति' शब्द से अपनी पहचान कराई 'ज्योति' को नमस्कार कियां उनको अहं नहीं था, क्योंकि ज्योति स्वरूप आत्मा में अहं भरा था और ऐसे बहुत से आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी पहचान नहीं कराई परीक्षामुख, प्रमेय-रत्नमाला में आचार्य कुमुदचंद स्वामी ने कहीं भी अपना परिचय नहीं दियां यह सब योग, नक्षत्र, पुण्य प्रबल होता है कि कृति अनुपम लिखी जाती है और ऐसी कृति लिख डालते हैं कि कृति मंगलमय बन जाती हैं भो ज्ञानी! अपना पाप-पुण्य अपने साथ, दूसरे का दूसरे के साथ रहता हैं गलत को सही समझ कर अपने को कुमार्ग में मत ढकेलों देखो कर्मों की विचित्रता कि अनादिकाल की जंग पड़ी है कि इतने इतने सारे कर्म-बंध इकट्ठे पड़े हैं तथा पुरुषार्थ उतना है नहीं, पर देशना अवश्य ही कभी-न-कभी कार्य करेगी आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'षट्खण्डागम' के नौवें भाग में लिखा कि सच्चे भावों से श्रवण की हुई यह देशना कभी-न-कभी, किसी-न-किसी प्रकार, धक्का देकर परिणमन करायेगी हे भव्यो! जिनवाणी माँ के समीप पहुँचो, तो आप अवश्य ही मोक्षरूपी लक्ष्मी का वरण करके अनंतकाल के लिए सुखी हो जाओगें हे आत्मन्! एक जीव को वही हिंसा मंद-फल देती है और दूसरे जीव को वही हिंसा तीव्र-फल देती हैं पाप तो एकसा हुआ, पर परिणति भिन्न-भिन्न हैं अतः, चाहे ज्ञात-भाव से करो, चाहे अज्ञात-भाव से करो, फल अवश्य ही भोगना पड़ेगां जैसे एक जीव के तीव्र वासना का वेग आया, फलतः संयोग से पहले ही धातु-शक्ति नष्ट हो जातीं दूसरे जीव की इतनी पुरुषार्थ शक्ति प्रकट हुई कि साधु के पास पहुँचने से पहले ही वैराग्य भाव प्रगट हो गयां अहो! जैन-सिद्धांत में कर्म प्रत्यक्ष दिखता है कि करने से ही कर्म-फल मिलते Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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