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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 190 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 केवल जीवों की रक्षा करना ही नहीं अपितु छिपकली की भी रक्षा करना अहिंसा हैं परंतु अनेक की रक्षा के पीछे एक का घात नहीं करना और एक की रक्षा के पीछे अनेक का घात भी नहीं करना, क्योंकि वध तो वध है, हिंसा तो हिंसा हैं एक मरीज के शरीर में कीड़े पड़ रहे हैं, औषधि डालोगे तो जीव अवश्य मरेंगें इसीलिए महाव्रती के शरीर में खुजलाहट भी पड़ती है, तो वे उस अंग को खुजलाते नहीं हैं यदि असहनीय वेदना हो जाती है, तो पिच्छी से उस स्थान का मार्जन कर वहाँ स्पर्श करते हैं, क्योंकि असाता कर्म के उदय से यह कीड़े पड़े हैं यदि पुनः तूने उन कीड़ों को कष्ट दिया, तो फिर नवीन असाता का उदय होगां जिस जीव ने तुम्हें पीड़ा दी है, उस जीव के प्रति पीड़ा देने के भाव नहीं होना, यह तो मध्यम अहिंसा हैं लेकिन किसी के द्वारा पीड़ित करने पर भी उसे पीड़ित कराने, करने, करवाने के भाव भी नहीं लाना उत्कृष्ट अहिंसा हैं ज्ञानी सोचेगा कि इस जीव का कोई दोष नहीं है, मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही दोष है; यह तो बेचारा निमित्त मात्र बना भो ज्ञानी! कानों से नहीं, मस्तिष्क से नहीं, अन्तःकरण से समझना कि किसी की पीड़ा को सहन करना हिंसा नहीं, क्षमा-धर्म कहा जायेगां जीव पुण्य के उदय में अनंत पाप कर लेता है, जो झलकते नहीं हैं, परंतु जिस दिन विपाक उदय में आता है, उस दिन कितना ही सुंदर भवन हो , कितना ही सुंदर महल हो तो उसमें भी दरारें पड़ जाती हैं और पानी टपकना प्रारंभ हो जाता हैं ऐसे ही विशाल पुण्यात्मा के पुण्य के भवन में पाप के छिद्र हो जाते हैं, तो वहाँ विपाक का पानी टपकना प्रारंभ हो जाता हैं 'आत्मानुशासन' में गुणभद्र स्वामी लिख रहे हैं : बड़े बड़े वैभवशाली हो गये, परंतु सूर्य का तेज ऐसा होता है कि सागर के पानी को भी सोख लेता है, उसको भी भाप बनाकर उड़ा देता हैं ऐसे ही पुण्य व पाप दोनों का तेज बड़ा प्रबल होता हैं पुण्य का तेज पाप को सुखा देता हैं। ___भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि अहिंसा और हिंसा के भावों को समझ लिया, तो भगवान् बनने का पुरुषार्थ प्रारंभ हो जायेगां अभी आपने धर्म का स्वरूप नहीं समझां रक्षा की नहीं, रक्षा का भाव ही किया तो पुण्य-बंध हो गयां हिंसा की नहीं, हिंसा का भाव हो गया तो पाप बंध हो गयां अहो! एक जीव विमान में बैठकर आया और जैसे ही उतरा तो गाड़ी लग गयी, गाड़ी से उतरा तो पालकी लग गयी, पालकी से उतरा तो सिंहासन पर बैठा दिया गया और पैर दबने लगें गरीब जो सड़क पर काम कर रहे थे, सोचने लगे कि भाई! इनको थकान किस बात की आ रही है? अरे! पैर दबना चाहिये तो मेरे दबना चाहि मैं टोकरी डाल रहा हूँ, टोकरी डालते-डालते मेरे हाथों में छाले पड़ गये हैं, पैर छिल रहें है, परंतु कोई भी पूछ नहीं रहा और उल्टे एक साहब डाँट भी गये-क्यों, कितनी खंती खोदी? अहो! कहीं मत देखों आँखो से पुण्य भी दिख रहा है और हिंसा का फल भी दिख रहा हैं 'कुरल काव्य' में लिखा है- मेरे से मत पूछो कि धर्म का फल क्या है और पाप का फल क्या है? एक पालकी को ढो रहा है, उसको देख लीजिये और उस Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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