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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 186 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 यदि पुण्यास्रव चल रहा है तो तुम नहीं भी कमाओगे तो भी छप्पर फाड़ के आयेगां देखो, धन्यकुमार ने मुठिया पर हाथ लगाया, तो मणियों का घड़ा निकल पड़ां वहीं 'अकृत-पुण्य' की पर्याय में सोने में हाथ लगाते ही मिट्टी हो गया था इसलिए अमृतचंद्र स्वामी ने सूत्र दिया है कि हिंसा के आयतन अर्थात् हिंसा के साधन होंगे तो वैसे परिणाम भी बनेंगें पता चला कि कौरव व पाण्डव भाई-भाई आपस में लड़कर मर गयें यदि आप जिनवाणी पर श्रद्धा रखते हो तो आप लोग विश्वास रखना, शत्रु के घर में भी आपको बचानेवाला मित्र मिलेगां वहाँ भी लोग कहेंगे कि इसको छोड़ दो लुटेरे लूट भी ले जायेंगे तो वह भी तुम्हारे घर में वापस आ जायेगां ऐसा आपको विश्वास होना चाहियें पंडित बनारसीदास जी के घर में चोर ने इतना चांदी-सोना चुराया कि बेचारे से उठाते नहीं बनां धन्य हो उस सेठ विद्वान् की क्षमता और समता को जो कि वह विचारने लगे कि, अरे! यह पुद्गल का परिणमन ही तो हैं मेरे घर में रखा था, अब इसके घर में रखा जायेगां न इसको इसे खाना है, न मेरे कों पेट तो सोने से नहीं, रोटी से ही भरेगां अतः पोटली उठाकर उस विद्वान् ने चोर के सिर पर रख दी चोर घर जाकर माँ से कहता है, माँ! आज अनोखे व्यक्ति के यहाँ से चोरी करके आया हूँ इतना सोना-चांदी लाया हूँ कि उस पागल ने अपने हाथ से पोटली मेरे सिर पर रख दी माँ समझ गयी, बोली-बेटा! लगता है तुम पंडित बनारसीदास के घर पहुँच गयें ऐसे विद्वान् के घर चोरी करते हो, तुम्हें शर्म नहीं लगती? माँ के समझाने से बेटे के भाव बदल गये और उलटे पाँव चल दिये पंडितजी साहब के घरं बोला; माँ ने हमे डाँटा है, अतः आपका धन आप ही रख लों वह धन नहीं, सम्पत्ति थीं भो ज्ञानी! धन और सम्पत्ति में बहुत अंतर होता हैं ज्ञानी सम्यक्दृष्टि, मुमुक्षु जीव यदि गृहस्थ होता है तो आजीवका के लिए वह धन नहीं, सम्पत्ति कमाता हैं अतः जो समीचीन रूप से धन का अर्जन किया जाता है, उसका नाम सम्पत्ति है और जो मायाचार-भ्रष्टाचार से कमा रहा है, वह तो धन ही है, जो स्वयं को संसार में धर देता हैं इसलिए ध्यान रखो, सम्पत्ति तो आपके लिए समीचीन हो सकती है, लेकिन विपत्ति में डालकर सम्पत्ति कभी सम्पत्ति नहीं हो सकतीं कर लो इसका सदुपयोग, अन्यथा ध्यान रखना कि चक्रवर्ती की मृत्यु या चक्रवर्ती के संयम लेने के बाद वे चौदह रत्न व नौ निधियाँ विलय को प्राप्त हो जाती हैं इसलिए यह भूल जाना कि मेरे घर में बहुत हैं पुण्य चला जायेगा तो घर तो वहीं रहेगा, पर सामग्री नहीं रहतीं अतः, चिंता में मत बैठ जानां सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं, सबकी अवस्था स्वतंत्र है, सबका पुण्य स्वतंत्र है, सबका पाप स्वतंत्र है और सबका विपाक भी स्वतंत्र हैं भो ज्ञानी! हम आपका सिर दबा देंगे, परंतु हम आपके सिर के दर्द को नहीं दबा पाएँगें जिसका जैसा विपाक होगा, उसे ही भोगना पड़ेगा अतः विपाक-काल में ही संभलने की आवश्यकता हैं कोई भी व्यक्ति जीवन को संभालने के लिए भाषण दे सकता हैं गाड़ी पर नहीं बैठनेवाला भी बहुत व्याख्यान दे सकता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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