SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 180 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 के सभी वचन स्वार्थ से भरे होते हैं मात्र जिनदेव के वचन ही ऐसे हैं जिनमें स्वार्थ की गंध भी नहीं, कोई अपेक्षा भी नहीं यह अनमोल वाणी हैं अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि उस जिनेन्द्र की वाणी में परम वीतरागता को प्रकट करनेवाली अहिंसाधर्म की वह पवित्र सीख प्रकट हुई है कि जिसको आपने समझ लिया तो समझ लो कि जीवन में आपने सबकुछ सीख लियां भो ज्ञानी! जब कषाय से युक्त परिणाम होते हैं तो नेत्र रक्तवर्ण हो जाते हैं, शरीर कम्पायमान हो जाता हैं जिसका बाह्य वातावरण ऐसा है, तो अंदर की लालिमा कैसी होगी? कषायी व्यक्ति का शरीर काँपता हैं मद्य पायी में और कषायी में विशेष अंतर नहीं होतां वह भी काँपता है, यह भी काँपता हैं उसके भी नेत्र लाल हो जाते हैं, इसके भी नेत्र लाल हो जाते हैं हेय व उपादेय का विवेक मद्यपायी एवं कषायी दोनों के नहीं होतां कितने ही घर, नगर उजड़ गये इस कषाय की महिमा सें कितने जीव अपनी पर्याय को छोड़कर चले गये और कितनी पर्याय को छुड़ाकर चले गयें भो चेतन्य! सुहदुक्खसुबहुसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्सं संसारदूरमेरं तेण कसाओत्ति णं वेंति 282 सम्मत्त देससयलचरित्तजहक्खादचरण परिणामें घादंति वा कषाया चउसोलअसंखलोगमिदा 283 गो.जी.का. जो आत्मा को कसे, उसका नाम कषाय हैं जिससे आत्मा तप्त हो, उसका नाम कषाय है! जो यथाख्यात्धर्म का घात कर रही है, उसे शुभ कैसे कहें? वह चारों ही अशुभ हैं चारों चतुर्गति -रूप-संसार में घुमा रही हैं अंतर इतना है कि तीव्र-कषाय में तीव्र संक्लेषता होती है, मंद-कषाय में मध्यम संक्लेषता होती हैं कषायभाव ही लेश्या के जनक होते हैं और जैसे ही लेश्या की परिणति बनती है, वैसे ही तेरी आयु–बंध की व्यवस्था होती हैं जैसे ही आयु-बंध की व्यवस्था होती है, वैसी ही गति में तेरा गमन होता हैं जैसे मति, वैसी ही गति का परिणाम भोगना पड़ता हैं इसीलिए आपको जिस गति की व्यवस्था करना हो, कर सकते हों भो चेतन! जिस गति में जाना, उस गति के परिणामों-के-पड़ोसी का ख्याल जरूर रख लेनां गति का पड़ोसी कषाय हैं जब तक कषाय के पड़ोसी रहोगे, तब तक तुम कहीं शांति से नहीं रह सकोगें चाहे आप असंयमी के बीच में रहना, चाहे संयमी के बीच में रहना, परंतु कषाय तो आपको ही बदलना होगी कषायी जीव अपनी ही आत्मा का घात करता हैं यदि तेरे अन्दर विभाव–परिणति न बने तो, भो ज्ञानी! तुझे कोई भी गुस्सा नहीं दिला सकतां उपादान में कमी है तो चींटी पर भी गुस्सा करता हैं वो तो अज्ञानी थी, पर उस चींटी पर तुम Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy