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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 18 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 ! भो ज्ञानी ! द्वितीय श्लोक में आचार्यदेव परमागम की वंदना कर रहे हैं ज्ञानीजन उपकारी के उपकार का कभी विस्मरण नहीं किया करतें अहो कृतज्ञतागुण महान हैं जैसे भिखारी के पास अमूल्य रत्न दुर्लभ होते हैं ऐसे ही ज्ञानीजनों में नानागुणों के होने पर भी एक कृतज्ञता गुण अतिदुर्लभ होता हैं आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि जब भी ग्रंथ का प्रारंभ करें, सर्वप्रथम मंगलाचरण करना चाहिए नास्तिकता का परिहार, शिष्टाचार का पालन, पुण्य की प्राप्ति निर्विघ्न कार्य की समाप्ति के निमित्त विज्ञपुरुष किसी भी श्रेष्ठ कार्य के प्रारंभ में मंगलोत्तम शरणभूत मंगलाचरण ही करते हैं तद् परंपरा का ध्यान रखते हुए आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने मंगलाचरण कियां इस द्वितीय श्लोक में इष्टागम को नमस्कार कर रहे हैं, जो कि स्याद्वादशैली से युक्त अनेकांत / स्याद्वाद जैनदर्शन का प्राण हैं अहो ! विश्व के विवादों का विनाश तभी संभव है, जब स्याद्वाद का सूत्र अंतःकरण में घोष करेगा वाणी में स्याद्वाद दृष्टि में अनेकांत, चर्या में अहिंसा ये तीन श्रमण संस्कृति के मूल सिद्धांत हैं विश्व में कालदोष के कारण नाना मिथ्या - एकांत मतों का उद्भव हुआ, जो कि मात्र संसार दृष्टि का हेतु हैं भोले प्राणियों को संसार के गर्त में डालना मात्र जिसका परिणाम होगां हैं अहो ज्ञानी ! कर्म की विचित्रता तो देखो, जिस जीव ने कषाय के वेग से तीर्थेश आदिनाथ स्वामी के समवसरण में देशना का पान निर्मलभाव में नहीं किया, अहंभाव में आकर धर्मसभा छोड़कर, तीन सौ त्रेसठ मिथ्यामतों का सृजन कर अपनी आत्मा को दीर्घ संसारी बना लियां क्या कोई कहेगा, प्रभु ! इन मिथ्या पंथों के जनक वर्धमान महावीर तीर्थकर होंगे ? मारीचि की पर्याय में जिन पंथों को बनाया था, वर्धमान महावीर स्वामी बनकर भी उनको समाप्त नहीं कर सकें अहो! क्या कहें ? काल का दोष या फिर मारीचि की पर्याय का रोष? कुछ भी हो, जीवन में कभी ऐसी भूल मत कर जाना जिसे भगवान बनकर भी समाप्त नहीं कर सकों भगवान महावीर स्वामी के चरणों में प्रार्थना कर लेना, कि भगवान! आप तो संसार से तिर गये, परंतु मिथ्यामतों का उपदेश समाप्त नहीं हुआं ध्यान रखना, भगवन जिनेन्द्रदेव की वाणी समझ में नहीं आये तो कोई बात नहीं, परंतु जो मिथ्या - धारणा सामान्यजनों में आपके उपदेश से बनेगी, उसका हेतु आप होंगें साथ ही अनंत जीवों को मोक्षमार्ग से च्युत कराने के हेतु भी होंगें अतः ध्यान रखना, स्वयं की ख्याति के पीछे परमागम के मार्ग को, नमोस्तु शासन को विकृत नहीं कर देना भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी द्वितीय मंगलकारिका में ऐसी पीयूषवाणी की वंदना कर रहे हैं जो विरोध का मंथन करनेवाली है, सम्पूर्ण नयों से सुशोभित हैं परमागम यानि उत्कृष्ट जैन सिद्धांत के मूलभूत 'ऐसे अनेकांत यानी एकपक्ष रहित स्याद्वाद को मैं ग्रंथकर्त्ता अमृतचन्द्र स्वामी नमस्कार करता हूँ वह स्याद्वादवाणी मिथ्या-एकांत का विरोध कैसे करती है? इस बात को आचार्यश्री दृष्टांत के द्वारा समझा रहे हैं। जैसे जन्म के अन्धे पुरुष हाथी के पृथक्-पृथक् अवयवों का स्पर्श करके, उनसे हाथी का आकार निश्चय करने में विवाद करते हैं, क्योंकि वे हाथी के एक-एक अंग को अपने-अपने हाथों के द्वारा स्पर्श करके जान Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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