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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 165 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 बदनाम करनेवाला क्षण-क्षण में कष्ट दे रहा हैं जैसे एक जननी अपने शिशु की रक्षा करती है, ऐसा ही मुमुक्षु जीव वह जननी है, जिसे विश्व के प्राणीमात्र नवजात शिशु नजर आते हैं यह द्रव्य–हिंसा की बात कर रहे हैं, जिसमें मात्र प्राणों की हिंसा को हिंसा कहते हैं लेकिन नमोस्तु-शासन कहता है, भो ज्ञानी! किसी के भावों को विकल्पों में डाल देना भी हिंसा ही हैं इसलिए आगम में द्रव्य–हिंसा और भाव-हिंसा दो प्रकार की हिंसा का कथन हैं भो ज्ञानी! जीव-वध के परिणाम करना भाव हिंसा है और किसी के प्राणों का वियोग करा देना, यह द्रव्य–हिंसा हैं अरे! दोनों मार्गों के त्यागी जब तक नहीं बनोगे, तब तक मोक्ष मार्गी नहीं हों मुमुक्षु जीव उभय हिंसा का त्यागी होता हैं हम कभी-कभी निष्प्रयोजन हिंसा भी कर लेते हैं जिसमें टेलीविजन तो सप्त-व्यसन का डिब्बा हैं मैच आया, बोले-वह जीत गया, यह हार गयां क्या मिल गया आपको? कुछ नहीं मिल रहा है, कुछ जा नहीं रहा, लेकिन आनंद मना रहे हो-अतः हिंसा तो चल रही हैं दो देशों का क्रिकेटमैच चल रहा है और आप लड्डू बाँट रहे हैं, क्योंकि हमारा देश जीता हैं सीरियल देख रहे थे, किसी का घात हो गया, आपकी ताली बज रही है, भाव-हिंसा कर ली किसी ने किसी को डाँट दिया, मैं भी सोच रहा था कि अच्छा किया आपनें क्या हुआ? हिंसा की अनुमोदना कर लीं चाहे स्वयं करें, चाहे दूसरे से करवाएँ अथवा हिंसा करनेवाले की प्रशंसा कर देना, यह हिंसा ही हैं कितनी बार स्वयं की भी हिंसा की हैं जरा-सी बात पर मान आ गया, क्रोध आ गयां माँ जिनवाणी कह रही है कि उतने काल तक आपने अपने स्वभाव का घात किया है, इसलिए आप हिंसक हों अहिंसक वही हो सकता है, जिसने कषायों का शमन कर दिया हों पूर्ण अहिंसक चौदहवें गुणस्थान में विराजे अरिहंत भगवान् ही हैं जहाँ पर अठारह-हजार शील की पूर्णता होती है, ऐसे सयोग-केवली भगवान् ही पूर्ण अहिंसक हैं परंतु अहिंसा का प्रारंभ महाव्रत के साथ, छटवें-गुणस्थान से हो जाता है और अष्ट-मूलगुणों के रूप में अविरत-सम्यक्दृष्टि जीव के भी शुरू हो जाता हैं भो ज्ञानी! मन,वचन, काय तीनों योग हैं किसी ने मन में सोच लिया कि जितने संसार के लोग हैं, वे सब नाश को प्राप्त हो जाएँ अपने जनक तक को मारने के विचार मन में आते हैं अरे भगवान! दुनियाँ को तो काल ले गया, इनको क्यों नहीं ले जा रहा है? यह तो अपनी आयुकर्म पूरा होने पर ही जायेंगें अहो! यह विचारकर आपने अपने कर्मकाल को जरूर बुला लिया हैं सोचो, इससे बड़ा हत्यारा दुनियाँ में और कौन होगा, जो अपने माता-पिता को मारने की बात सोच रहा है? जब वे जन्मे थे, तो अपने पुण्य से ही जन्मे थे और उनकी मृत्यु भी आयु कर्म के क्षय होने पर ही होगी भो ज्ञानी! यदि कर्म-सिद्धांत को जानते हो तो, शत्रु को भी शत्रु-दृष्टि से मत देखों तुम दूसरे की खाल को निगल रहे हो, दूसरों के रक्त को मुख से नहीं तो बोतलों के माध्यम से पी रहे हो, यह हिंसा ही हैं अरे! मृत्यु को प्रतिसमय अपना प्रिय मानकर चलना, लेकिन सजगता बनाकर चलना आयुकर्म प्रतिक्षण क्षीण Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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