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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 157 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 तक अग्नि मंद-मंद है और तेज उबाल पर ढ़क्कन भी नहीं ठहरतां ऐसे ही जिस जीव की कषाय उबाल पर हो, उसको संयम, ज्ञान, चारित्र की बात बताओगे भी, तो वह नहीं ठहरती एक माँ धीरे से उस उबाल पर ठण्डा पानी डाल देती है अथवा नीचे से लकड़ी को हटा देती हैं तो वह शांत हो जाता हैं अतः दो ही उपाय हैं जिन निमित्तों से हमारे असंयम-भाव बनते हैं, उन निमित्तों को हटा दें यदि आप पदार्थ नहीं हटा पा रहे हैं तो आप स्वयं पदार्थ से हट जाओं भो ज्ञानी! इन्द्रियों को समझाने के लिये तो तुझे गुरु मिल जायेंगे, लेकिन मन को समझाने वाला गुरु तो स्वयं तुझे ही बनना पड़ेगां मन की गलती को देखनेवाला कोई गुरु है, तो तू स्वयं ही है अथवा केवली-भगवान् हैं अब तुम कुछ करोगे तो ध्यान रखना, आस्रव ज्यादा ही होगां इसलिये आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि संपूर्ण सावद्य-क्रियाओं का बुद्धिपूर्वक त्याग करने का नाम सम्यक-चारित्र हैं जिसमें हिंसा होती है, झूठ बोला जाता है, चोरी छिपी हो, अब्रह्म और परिग्रह भाव हो, वह सब अचारित्र हैं यदि तुम चारित्र का पालन करने लगोगे तो तुम्हारी भोगों की लिप्सा पूरी नहीं हो पायेगी, मान-सम्मान समाप्त हो जायेंगे, बड़े-बड़े भवन श्मशान घाट से नजर आयेंगें दूसरे शब्दों में उदासीन-वृत्ति का नाम ही चारित्र है; जहाँ भवन नहीं, निज-भवन की ओर दृष्टि रहती हैं अतः अपने आप में उत्साहित रहना, परंतु विश्व से उदासीन हो जानां जो निज में ही उत्साहित नहीं है, उससे संयम नहीं पल सकतां भो चैतन्य! हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पाँच पाप हैं इनको एकदेश छोड़ना श्रावकों का चारित्र है और सम्पूर्णरूप से पाँच पापों का त्याग करना साधुओं अथवा महाव्रतियों का चारित्र हैं इसीलिये आज बैठकर अनुभव कर लेना कि पूरी पर्याय हमने भोगों की भट्टी में नष्ट कर दी हैं अब उन भोगों का फल रोना हैं क्योंकि भोगों के भोग से रोग हुआ और संतान को जन्म दिया, फिर कुटुम्ब बढ़ गयां कल किसी की मृत्यु, परसों किसी की, अब बैठे-बैठे रो रहे हैं योग का फल है-निज में लीन होना, प्रसन्नचित्त रहनां यदि प्रसन्न रहना चाहते हो तो किसी को प्रसन्न करने का विचार मन में मत लाना, क्योंकि आपकी ताकत नहीं है कि आप सबको प्रसन्न कर लों सब जीव सुखी रहें-ऐसा विचार तो लाना; लेकिन प्रसन्नता उथली वस्तु है जबकि सुख अंदर की वस्तु हैं अहो! परमसखी तो अरिहंतदेव हैं और उनसे भी परमसुखी सिद्ध भगवान् हैं तथा जो सुख के मार्ग पर चल रहे हैं, वे आचार्य, उपाध्याय और साधु-भगवंत हैं इसीलिये जिनवाणी में सुख की परिभाषा प्रसन्नता है ही नहीं "आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये" जहाँ आकुलता लगी हुई है, वहाँ सुख किस बात का? अतः, लोक में किसी को प्रसन्न करने का विचार मत लानां लोक में सभी जीव सुखी रहें, ऐसा विचार बनाकर रखना धर्मात्मा का लक्षण है; क्योंकि प्रसन्नता ऊपर Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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