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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 14 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 को प्रकट कर दिया-"वंदे तद्गुण लब्धये" ,यह गुणों को ही नमन हैं, क्योंकि गुणी, गुण के बिना नहीं होता और गुण, गुणी के बिना नहीं. भो चेतन! यह श्रमणसंस्कृति है, वंदना करने जा रहे, बंध करने नहीं ऐसी वंदना आज से तुम बंद कर दो, जिसमें बंध होता हों अतः तुम झुकना सीखो, मंदिर में जाना चाहते हो तो छोटे बनकर प्रवेश करो, झुक जाओं ध्यान रखना, जब तक यह जिनालय रहेंगे, तब तक जिन शासन जयवंत रहेगां जिनालय की स्थापना का उद्देश्य ही होता है कि जिनशासन जयवंत हों धर्म- आयतन नहीं होंगे तो धर्मात्मा भी नहीं होंगे, तो फिर धर्म किस बात का? अहो! धर्म- आयतन और धर्मात्मा की रक्षा से ही धर्म की रक्षा हैं अतरू गुणों को नमस्कार कर लो तो गुणी की वंदना सहज हो जायेगी . भो ज्ञानी! तत्ज्योति जयवंत हो, परमज्योति जयवंत हों वह केवलज्ञान ज्योति जैसे अहंत वर्द्धमान स्वामी की है, वैसे ही आदिनाथ स्वामी की हैं जैसे आदिनाथ स्वामी की है वैसे ही अनतांनत सिद्ध भगवन्तों की हैं इसलिए कद को मत देखनां कद को देखोगे तो तीर्थकर आदिनाथ स्वामी की अवगाहना पाँच सौ धनुष की, उनके पुत्र बाहुबली स्वामी की सवा पाँच सौ धनुष की और भगवान महावीर स्वामी की सात हाथ की है और साढ़े तीन हाथ के भी केवली भगवान होते हैं. साढ़े- तीन हाथ की जघन्य अवगाहना अहंत भगवान की भी होती हैं अहो! तुमने प्रतिमा की अवगाहना देखकर प्रभु के गुणों में लघुता/प्रभुता का भेद कर लिया हैं प्रत्येक व्यक्ति अपने हाथ से साढ़े- तीन हाथ का है, परंतु ध्यान रखना, जो सर्वार्थसिद्धि का देव होता है, उसका मूल शरीर मात्र एक अर्तनी प्रमाण होता हैं विक्रिया से वह उसे बहुत विशाल बना सकते हैं. भो ज्ञानी! अब सोचों विक्रिया धारी जीव की गति, शरीर, अवगाहना आदि-इसमें ऊपर-ऊपर जाति के देव हीन होते हैं जितना श्रेष्ठ व्यक्ति होगा, उसको अभिमान कम होगा और जो जितना हीन व्यक्ति होगा, उसको अभिमान उतना ही ज्यादा होगां सोचो, भूत-व्यंतर आदि सामान्य देव घूमते हैं, परंतु उच्च जाति के देव इधर-उधर नहीं घूमते, अपने स्वर्गों में ही रहते हैं और न तो एक देव दूसरे देव को आज्ञा देते हैं, न किसी की आज्ञा का पालन करते हैं, जैसे आपकी रसना- इंद्रिय घ्राण से कहे मैं थक गयी हूँ, तुम मेरा काम कर देना, तो कह देगी-सुनो, मैं स्वतंत्र हूँ, मैं अपना काम करूँगी, तुम अपना काम करों अर्थात् एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय का कार्य नहीं करती है, ऐसे ही स्वर्गों में एक अहमेन्द्र दूसरे अहमेन्द्र का कार्य नहीं करतां आज्ञा भी नहीं पालता और आज्ञा भी नहीं देतां अहो! सबसे ज्यादा दुख आज्ञा पालन में हैं कभी-कभी सम्राट से ज्यादा वैभव सेठ के पास होता है, परंतु सेठ को अपनी सीमा में रहना पड़ेगा और सम्राट का अपने देश पर आदेश चलेगां भो ज्ञानी! तेरे शरीर में इंद्रियों के बीच मन- सम्राट बैठा है, जो आज्ञा दे रहा है, वह स्वामी है इंद्रियों का, परंतु ध्यान रखना, प्रजा एक मत हो जाए तो सम्राट को झुकना पड़ता हैं यदि इंद्रियाँ कह दें कि अब असंयम का सेवन नहीं चलेगा तो मन को भी शांत बैठना पड़ता हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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