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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 133 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 तो, भो ज्ञानी! बड़ी-पापड़ भी बिगड़ने लगते हैं एक-इन्द्रिय जीव के पास करुणा नहीं है, मन नहीं है, पर एक-इन्द्रिय जीव के पास संवेदनाओं का अभाव भी नहीं है; वह भी खिल उठता है, प्रसन्न हो जाता हैं लंकेश के पास कितना वैभव था? क्या उसके यहाँ संगीत नहीं होते थे, बाजे नहीं बजते थे? लेकिन प्रेम-संगीत नहीं थां जब राम जंगल गये थे तो उनके साथ मात्र तीन थे, लेकिन अठारह-अक्षौहणी सेना का अधिपति लंकेश प्रभावना नहीं कर सका और मात्र तीन व्यक्ति जो जंगल में गये थे उनके पास वात्सल्य होने से बंदर, भालू आदि वानरवंशी आदि भी सेना में शामिल हो गयें लंका में विजय कलुषता की नहीं, वात्सल्य की हुई थीं किसी को धुतकारा नहीं, हर व्यक्ति को पुचकारा ही था, सहज दृष्टि से ही देखा था, तभी इतनी बड़ी प्रभावना हुईं अरे! बलभद्र तो हर काल में हुये हैं, लेकिन उन सब में राम का नाम ही क्यों आता है? क्योंकि मर्यादा के साथ चले थे, उनके पास सहजता थीं रावण ने तो मंदिर भी बनवाया था, लेकिन आज कोई उल्लेख नहीं मनीषियो बहुत बड़े-बड़े मंदिर-भवन बनवा देने से प्रभाव नहीं रहता है, अंदर निज के भवन में तुमने सबको स्थान दिया है तो आपका प्रभाव हैं हमारी कषायों के बादल नहीं छटे तो माँ जिनवाणी कह रही है कि तू प्रभावना क्या करेगा? इसलिये, सम्यक्त्व प्रगट करो, शास्त्रज्ञान मात्र को सम्यज्ञान मत कह देनां जिसमें हित की प्राप्ति हो, अहित का परिहार हो, वही ज्ञान सम्यकज्ञान है, वह चाहे न्यून हो या अधिक अल्प-ज्ञानी होना कोई दिक्कत नहीं, लेकिन ज्ञानी होकर बहुमानी हो जाना, अभिमानी हो जाना पाप/कषाय हैं अल्पज्ञान मोक्ष का कारण है, क्योंकि मोह-रहित है, जबकि मोही जीव का बहु-ज्ञान संसार का कारण है आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने "अष्ट-पाहुड्" में लिखा है, भो मुमुक्षु आत्माओ! मानव पर्याय का सार सम्यज्ञान हैं अज्ञानी-अवस्था तियंच-तुल्य होती हैं अज्ञानता के सद्भाव में व्यक्ति अपने आपको भी नहीं पहचान पाता है, दर-दर अवहेलना होती हैं देखो, धनवान की पूजा अपने देश/राज्य में ही हो सकती है, पर विद्वान की पूजा सर्वत्र होती हैं यह विद्वत्ता! तभी हासिल होती है जब तुम्हारे पास विनय हैं इसीलिए ज्ञानी तो बनना, परंतु ढक्कन के समान नहीं, जो समय आने पर हट जाये, अपितु बटलोई की तरी के समान स्थाई बननां अतः, ज्ञान वही है जो हमारे लिए संकटों में मित्र का काम करे, क्योंकि निज ज्ञान का सहारा कभी छूट नहीं सकतां उपसगों,संकटों और परीषहों में जब भी कोई काम आयेगा, तो अंदर का ज्ञान ही काम आयेगां यदि अंदर ज्ञान नहीं है तो न संयम काम आएगा, न सम्यक्त्व; क्योंकि ज्ञान को दोनों के बीच में रखा हैं जो दीपक देहरी पर रखा हो, वह अंदर भी प्रकाश करता है व बाहर भी प्रकाश करता है, यही न्याय हैं अतः जो ज्ञान दर्शन को विशुद्ध करता है तथा चारित्र को भी विशुद्ध करता है, उसका नाम सम्यज्ञान हैं भो ज्ञानी! जिस ज्ञान से निज के परिणमों में निर्मलता बढ़े, वही ज्ञान है और जो ज्ञान अज्ञानता को बढ़ा दे, वह अज्ञान हैं सावन का महीना, राखी के पर्व पर नाना-मामा के यहाँ से खिलौने,राखियाँ, मिठाईयाँ न आने पर पुत्र ने कहा-हे जननी! मुझे बताओ, मेरे नाना के यहाँ से कुछ क्यों नहीं आया? माँ की आँखों से Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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