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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 123 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 "धर्मी सो गौ बच्छ प्रीत कर " अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्में सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यं 29 अन्वयार्थ : शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने मोक्षसुखरूप सम्पदा के कारणभूतं धर्मे सर्वेष्वपि = समस्त हीं सधर्मिषु साधर्मीजनों में अनवरतम् वात्सल्य व प्रीति कों आलम्ब्यम् = अवलम्बन करना चाहियें = = धर्म में अहिंसायां च = अहिंसा में औरं = लगातारं परमं = उत्कृष्टं वात्सल्यम् = भो मनीषियो! हम अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी की दिव्य - देशना सुन रहे हैं आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने हमें अभूतपूर्व परमामृत सूत्र प्रदान किया है कि तुमने आज तक दूसरों को स्थिर किया है, लेकिन स्वयं में स्थिर नहीं हुएं यदि स्वयं में स्थिर हो गये होते तो कभी पर - की स्थिरता की बात करने की आवश्यकता नहीं थीं पड़ौसी के घर में जब इष्ट का वियोग होता है तो हम सभी समझदार हो जाते हैं जब स्वयं के घर में इष्ट का वियोग होता है तब वही समझ पलायन कर जाती है, जो दूसरों को समझाने के समय आती हैं उस समय समझ से कह देना कि, हे समझ! जीवन की अंतिम बेला में जब मेरे ऊपर संकटों के पर्वत टूट रहे हों, जब मेरी अंतिम श्वांस निकल रही हो, उस दिन समझ चाहियें अहो ! उस दिन समझ आ जाए, तो विश्व में तुमसे बड़ा समझदार नहीं मुमुक्षु इस अंतिम दिन को कहता है कि यह मेरे जीवन का प्रथम दिन होगा कि जिस दिन वीतराग जिनेन्द्र का कीर्तन/स्मरण करते हुए मेरी अंतिम पलक झपकेगीं बस, पलक झपकी नहीं कि पलक खुल गईं यह स्थितीकरण अंग हैं स्थितिकरण किस-किसका करें ? स्वयं का भी करें, पर का भी करें पर जो व्यक्ति स्वयं गिर रहा है, स्वयं पतित है, स्वयं दुर्बल है, निर्बल है, वह दूसरे को क्या अपने हस्त का आलंबन देगा ? भो ज्ञानी ! यदि आप किसी को धर्म से जोड़ना चाहते हो तो ध्यान रखना, उसको भी विश्वास दिला देना कि मैं धर्म से जुड़ा हूँ सर्वज्ञ के चरणों में आप इसलिए नहीं झुकते हो कि, प्रभु! आप विभूति - संपन्न हो, आपके यहाँ देव आते हैं, आपके समवसरण की विभूति है; बल्कि दृढ़ आस्था हैं अमूढदृष्टि अंग में आपको मालमू होगा कि वह विद्याधर एक क्षुल्लक जी बन गये थे; उन्होंने तीर्थंकर का वेष भी बनाकर दिखा दिया था; लेकिन रेवती रानी तीर्थंकर को नमस्कार करने नहीं गईं परंतु क्षुल्लक के वेष में आए थे तो 'इच्छामि' Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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