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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 115 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आपने बहुमान रखां एक वह सूर्पनखा और मंथरा भी नारी थी जिसने पूरी नारी-जाति को ही बदनाम कर दियां ऐसी एक धनश्री भी थी, जिसने काम की पीड़ा में आकर अपने पुत्र के ही दो टुकड़े कर दिये थे उनका कोई नाम नहीं लेता, परंतु जब भी शीलवंती के नाम मुख पर आयेंगे तो सती 'सीता', 'मनोरमा का नाम ही आयेगां भो ज्ञानी! यह व्यवहारदृष्टि में चर्चा चल रही हैं चूल्हा, चक्की, मूसल, उखरी ये कोई देव नहीं हैं इस बात से भी मत घबराना कि यह हमारे कुलदेवता हैं आचार्य जिनसेन स्वामी ने 'महापुराण' में मिथ्यात्व छोड़ने की विधि का कथन करते हुए, इन देवताओं को संबोधित करते हुए लिखा है कि बहुत अच्छा होगा यदि आप भी मेरे साथ मिलकर अरिहंतदेव की आराधना करों “अब मैं अरिहंत की उपासना करूँगा, आज से आपको मानना बंद करता हूँ", जब ऐसी दृढ़ आस्था तुम्हारे अंदर होगी तो वे भी आकर तुम्हारे चरण पकड़ लेंगें क्योंकि सम्यकदृष्टि जीव की देव भी पूजा किया करते हैं यहाँ निश्चय दृष्टि कुछ और कहेगी कि, हे जीव! नाना पर्याय तेरा धर्म नहीं है; नाना द्रव्यों में लिप्त होना तेरा धर्म नहीं हैं पर-द्रव्यों को संभालना ही सबसे बड़ी मूढ़ता हैं अतः जो परद्रव्य को परद्रव्य ही मानता है, स्व-द्रव्य को स्व-द्रव्य मानता है, वही सच्चा अमूढ़दृष्टि है, क्योंकि बहिरात्म-भाव ही मूढ़ता है और अन्तर-आत्म-भावना ही अमूढ़ता हैं भो चैतन्य! यदि आत्मा पर करुणा है तो आप ऐसे काम मत करो जो कुलपरंपरा के विरुद्ध हों, आगम-विरुद्ध हों और संस्कृति-विरुद्ध हों यदि तुम मित्र हो तो, अपने साथी का सहयोग भी कर देना कि, भो मित्र! हम आपको ऐसे गलत कार्य को करते कैसे देख सकते हैं ? इसका नाम मित्रता हैं जब पिता की अस्सी वर्ष की उम्र में पुत्र सेवा करता है तब पिता व पुत्र की पहचान होती हैं भो ज्ञानियो! ध्यान रखना, संत की पहचान तब होती है जब उपसर्ग/परीषह/आलोचनायें हो रहीं हों, फिर भी अपनी समता में जी रहा हों इसीलिए, हे मनीषियो! अपनी-अपनी पहचान कर लेना, अपने को मत भूल जानां ये सब पर्यायों के संबंध झलक रहे हैं, झलकेंगे, क्योंकि संसार हैं इसीलिए जो अमूढदृष्टित्व को भी समझ लेता है, वह दूसरों के दोषों और सम्मान के लिए ही अपना ही दोष, अपना ही सम्मान समझता हैं भो चेतन आत्मा! परम–पुरुष वह होता है, जो बोलते हुये मौन रहता हैं अपने आपको तत्त्व में स्थिर करनेवाला श्रमण गमन करने पर भी गमन नहीं कर रहा, देखने पर भी देख नहीं रहा; फिर भी सब कुछ कर रहा है, यही स्वरूप-लीनता हैं यदि कदाचित् कुछ करना भी पड़े तो कह कर भूल जाता है, क्योंकि कहना पर्याय का धर्म था, सुनना पर्याय का धर्म था परन्तु निज में ठहरना मेरा धर्म हैं अरे! जो अपने को छोड़कर दूसरे के घर बैठ जाये, उसको व्यभिचारी कहते हैं निज ध्यान को छोड़कर अथवा निजद्रव्य को छोड़कर जो पर के पीछे पड़ा है, उसको समयसार 'व्यभिचारी' कहता हैं इसीलिए, सम्बंध को स्वभाव मत बना लेना, Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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