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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 109 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आचार्य जयसेन स्वामी 'समयसार' की टीका में लिख रहे हैं-जुगाड़ लगाओं अर्थात् जो नजदीक होता है उनसे जुगाड़ लगाते हैं ऐसे ही मोक्षमार्ग के नेता सर्वज्ञ प्रभु भगवान अरिहंतदेव तीर्थकर हैं, उनके बगल में रहने वाले नेता आचार्य-परमेष्ठी हैं अतः उनसे तुम "जुगाड़ लगा लों वह धीरे से कह देंगे कि सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी मोक्षमार्ग 'जुगाड़' का सूत्र हैं यदि इस पर तुम चलोगे तो आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी फिर कहेंगे कि सच्चा नेता वही होता है जो निन्दा भी सुन रहा है, गाली भी सुन रहा, पर इधर-उधर कान (ध्यान) ही नहीं ले जा रहा हैं वह समझता है कि सुन लूँगा तो परिणाम खराब होंगे, इसलिये किसी की सुनता ही नहीं हैं तलवार भी चल जाये तो कुछ नहीं कहते, क्योंकि उन्हें अपना राज्य दिख रहा हैं जिसे सत्ता दिख रही हो, वह छोटी-मोटी बातें नहीं देखतां जिसको आत्मा की शुद्ध-सत्ता दिखती है, वह संसार की सामान्य सत्ता को नहीं देखतां यही वस्तु-तत्व हैं जो सर्वज्ञ-वाणी को सुनता है, उसे वैसा ही दिखता हैं भो चेतन! किसी के दरवाजे पर भटकने की जरूरत नहीं है, जो चाहोगे वह यहीं मिलेगा इसलिए अमूढदृष्टि अंग यही कह रहा है कि निज घर में सब कुछ हैं परन्तु अमूढ़ता तभी आयेगी, जब वीतराग-मार्ग पर ग्लानि-भाव नहीं रहेगा अन्यथा अमूढ़ता आने वाली नहीं है, मूढ़ता ही मूढ़ता रहेगी मूढ़ता का शाब्दिक अर्थ मूर्खता, अल्पज्ञता अथवा प्रज्ञा की हीनता है, बुद्धि की विकलता हैं अतः, उससे दूर रहकर पहली प्रतिज्ञा तो यह है कि मैं किसी पदार्थ को देखकर ग्लानि-भाव को प्राप्त नहीं करूँगां भो ज्ञानी! जीवन में ध्यान रखना कि किसी जीव को हीन भावना में नहीं डालना, क्योंकि हीन भावना में डालने से बड़ा कोई मीठा जहर नहीं ऐसा व्यक्ति अन्दर ही अन्दर घुलता रहता है, दुःखित होता है, संक्लेषित होता हैं वह जितना संक्लेषित होगा, उसको उतने कर्मों का बंध होगा और उसके निमित्त आप बंध मोगें अत: बिल्कल दर रहना, जैसे कि चल्हे में रोटीं अगर आग पर रख दोगे, तो जल जायेगी और आग के पास नहीं ले जाओगे, तो कच्ची रह जायेगी माँ रोटी को उतने क्षण तक ही वहाँ ले जाती है, जब तक कि वह सिक न जाएं ऐसे ही तुम पंचपरमेष्ठी के सान्निध्य में ऐसे ही रहना जैसे चूल्हे में रोटी ज्यादा दूर रहोगे तो तत्त्व को समझ नहीं पाओगें अग्नि का धर्म अग्नि जाने, चूल्हे का धर्म चूल्हा जाने, परन्तु हमारा काम था हमने कर लियां अपनी निर्बन्धता के लिए बस इतना ही संत समागम, आगम होता है जितने में परिणामों में विशुद्धता होती हैं अतः, ग्लानि नहीं करना; राग नहीं करना, द्वेष नहीं करना परन्तु अनुराग/वात्सल्य सर्वत्र रखना, यह निर्विचिकित्सा-अंग हैं भो ज्ञानी! मिथ्यात्व की गांठ बहुत कठोर हैं सर्प की दाढ़ में जहर रहता है, अतः कंठ की थैली को सपेरा निकाल लेता है, परन्तु आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत परिणामों की थैली पड़ी हुई हैं इस मिथ्यात्व के कारण ही पंचमकाल में जन्मे हो और अब छठवेंकाल में चले जाओगे, उस काल में सम्यक्दर्शन प्राप्ति के निमित्त भी प्राप्त नहीं होंगें जिन बिम्बों के दर्शन, जाति-स्मरण, धर्मोपदेश यह Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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