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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 104 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 हे जिनदेव! आपके गुणों की सम्पदा मुझे प्राप्त हो जावें बस, मेरी अन्तिम आकांक्षा यही हैं भो ज्ञानी ! यह सुख और दुःख कर्म के वश हैं जब तक निःकांक्षा नहीं बनेगी, तब तक ग्लानि हटेगी नहीं अरे! इनसे साइकिल मांगी थी, नहीं दी ठीक है, वस्तु उनकी है, इच्छा उनकी थी, नहीं दिया तो क्या करें? जबरदस्ती तो नहीं हैं अरे! ऐसी काललब्धि थी कि वह मना करेंगे ही देखो, संयम की बात करें तो काललब्धि दिखने लगीं असंयम की बात करें तो दुकान दिखने लगीं भो चेतन आत्मा ! स्वार्थ के लिये सिद्धान्त की बलि मत दें पर्याय तो स्वार्थ है, पर पर्यायी को नरकों में बिलखना होगां आज तुम ताम-झाम में जी लो, लेकिन ध्यान रखना, जो जितना ऊँचे से कूदता है उतना नीचे जायेगां जितनी विभूति और आकांक्षाओं से भरके तुम कूदोगे, उतने ही नीचे गहरे में चले जाओगें भो ज्ञानी! मुमुक्षु जीव उस किसान के तुल्य होता है जो कि भोगने के पहले बीज को सुरक्षित रख देता है, ऐसे ही पुण्य को बचाकर रखना और बीज को बोकर अब बाड़ी की व्यवस्था लगानी होगी अन्यथा आकांक्षा के मृग तेरी बसी बगिया को उजाड़ देंगें गुणभद्रस्वामी लिख रहे हैं 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ में आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषितां 36 प्रत्येक प्राणी की आशा का गड्ढा इतना बड़ा है कि विश्व की सारी विभूति उसके गड्ढे में अणु-प्रमाण दिखती हैं अब बताओ, सभी का गड्ढा इतना है कि वह भरा ही नहीं जा सकता हैं एक ही तरीका है भरने का भो ज्ञानी! छोड़ दो तो, निःकांक्षित-भाव भी आ जायगां अब आपको लोक से ग्लानि होना बन्द हो जायेगी, फिर किसी से नहीं कहोगे कि यह ऐसा, वह वैसा उल्टा मत पकड़ लेनां तुम इतने निर्मोही बनके रहो, अकर्ता बनके रहो, कोई आपको क्यों टोकेगा जब आप अपने आप में रहोगे, अपनी सीमा में रहोगें सागर इतना बड़ा क्यों ? क्योंकि उसने अपनी सीमा को कभी भी नहीं लाँघां प्रज्ञाशील जीव अपनी सीमा से बाहर नहीं जातां पैर भी बड़े होंगे तो संकुचित कर लेता है, पर दूसरे की चादर को खींचने का प्रयास नहीं करतां अतः, इतना सीख के जाना कि दूसरे को उघाड़ने का विचार अपने मन में मत लानां वर्णीजी को देखें जिन्होंने अपने वस्त्र दूसरों को उढ़ा दिये और एक आप हो कि दूसरे को उघाड़ रहे हों भो मुमुक्षुओ! निर्विचिकित्सा-अंग जिसके अन्तरंग में नहीं होगा, वह स्वयं की समाधि भी नहीं कर पायेगा तथा दूसरे की समाधि में भी कभी सहयोगी नहीं बन पायेगां आगम कहता है कि सल्लेखना के काल में ऐसे ही साधकों को साथ रखा जाता है जो उपगृहन, स्थितिकरण, निर्विचिकित्सा और वात्सल्य अंग के धारी हों जिनके पास ये अंग न हों, ऐसे व्यक्ति को कभी क्षपक के पास मत बिठाना; क्योंकि वह तो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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