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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 100 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 परंतु उसके फल पर तेरा अधिकार कदापि नहीं निष्काम आराधना करों माँ जिनवाणी कहती है -निःकाँक्षित आराधना करो, काँक्षा मत करो, करोगे तो अविश्वास बढ़ेगा, उपेक्षा आयेगी; क्योंकि अपेक्षा ही सबसे बड़ी उपेक्षा हैं अहो! जहाँ कुछ माँगने की भावना आती है, वहीं से लघुता प्रारंभ हो जाती हैं भो चेतन! भले आप बहुत सम्मान देते हो, पूजा करते हो, तीन-तीन प्रदक्षिणा भी लगाते हो, लेकिन वह घड़ी कैसी आती है कि आपका हाथ ऊपर होता और साधु अंजुली लिये खड़ा होता है, वह क्षण भी कैसा होता है? सोचता हूँ, भगवन! काश, बज्रवृषभनाराच शरीर प्राप्त कर लिया होता तो श्रावक के द्वार पर जाना बंद हो जातां भो ज्ञानी! जहाँ लेने की दृष्टि होती है, वहाँ लेनेवाला नीचे और देनेवाला ऊपर आ ही जाता है और इतना ही नहीं, कभी-कभी दाता की डाँट भी खानी पड़ती हैं जब एक निग्रंथ योगी की दशा यह हो सकती है, तो चौबीस घंटे माँगना ही माँगना जिनका विषय बना है उनकी क्या दशा होगी ? भावना भाओ कि, प्रभु! क्षुधा-वेदनीय का विनाश हों ___भो ज्ञानी! देवदत्त महाराज की रानी राजा को धक्का मार नदी में पटककर कुबड़े के साथ चली गई, क्या तुम तभी चेतोगे जब तुम्हारे साथ ऐसी घटना घटेगी ? अहो! इसके पहले सँभल जाओं समझदार वही होता है, जो सामान्य, विशेष समझ लेता हैं यह सब कुछ पुण्य का द्रव्य अपने पास रखा था, सो आज काम में आ रहा है कि ऐसी बातें सुनने की सूझ रही है, अन्यथा लोगों को तो पता ही नहीं कि भूल कर रहे हैं कि नहीं कर रहे, बल्कि भूल को ही धर्म मान रहे हैं एक सज्जन बोले-महाराजश्री! आज तो बड़ा पुण्य का काम करने जा रहे हैं हमने भी पूछा-बताओ भैया, क्या कर रहे हो? बड़े खुश थे, जैसे उन्हें मोक्ष मिल रहा हैं महाराजश्री! एक बिटिया के पाँव पूजने जा रहे हैं ओहो पापी! कहाँ जा रहे हो ? जो नौ-कोटि जीवों की हिंसा करेगा और उसे तू धर्म कह रहा हैं भो ज्ञानी ! लोकव्यवहार कह लेना, समाज-व्यवस्था कह लेना पर उसे धर्म तो मत कहनां धर्म तो यह है कि तू ब्रह्मचारी बन जाता और उसे ब्रह्मचर्य व्रत दिला देता, इसका नाम धर्म हैं मैं भी तेरी पीठ ठोक देता, आशीर्वाद दे देता कि वास्तव में तू पुण्य करने जा रहा है परंतु यहाँ तो तू संसार में फँसाने जा रहा हैं देखो, कैसा संसारीजीव है, अपनी भूल को भी भगवत्ता की प्राप्ति कह रहा है, धर्म मान रहा हैं भो ज्ञानी! वैभव को देखकर अपने अंदर के वैभव को मत खो देनां आचार्य महाराज कह रहे हैं: मात्र वर्तमान के सुख को सर्वस्व मान लिया तो वर्तमान की पर्याय को ही देखते रहोगें विश्वास करना, आप न तो किसी के मित्र बन पाओगे और न किसी के सगे बनकर रह पाओगे; क्योंकि वर्तमान के सिवाय जो भी है, वह शत्रुता को ही बढ़ाने वाले हैं जब दो बैलों को एकसाथ घास डाली जाती है तब जीव की ना देखो-अपने सामने की घास नहीं खाता, दूसरे की खाने लगता हैं स्वयं की घास पर पैर रख रहा है, मलमूत्र छोड़ रहा हैं नष्ट हो जाये, खराब हो जाये, पर दूसरे को सींग मार रहा हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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