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________________ घणी बात के, राज्जा का पेट्टा भर गया । फेर भावना मैं भर कै राज्जा बोल्या, "भंते! मन्नैं आपणी सरण मैं ले ल्यो । " अचार्य केस्सी तै राज्जा नैं बारा बरत लिए । ओ महलां मैं उलटा आ ग्या । राणी नैं देख्या तो हैरान रह गी। उसनैं यो सब किमै आच्छा कोन्नीं लाग्या । परदेसी नैं चाही अक उसकी राणी भी अचार्य जी धोरै चाल्लै अर धरम की दिक्सा ले पर वा ना मान्नी । सराब पीणा अर मांस खाणा उन्हें घणा भावै था। वा चाहूवै थी, राज्जा भी न्यूं- ए करै। परदेसी के धरमातमा बणन तै वा भित्तर-ए-भित्तर घणी जलै थी । एक दन उसनें राज्जा तै मारण की सोच्ची । धोके तै उसने राज्जा तै जहर दे दिया । राज्जा नै राणी पै छोह कोन्यां करूया । इस बात है उसका बिराग और भी घणा हो गया । ओ पौसधसाला मैं चल्या गया। राग-द्वेस तै छूट कै ओड़े-ए धरम- ध्यान मैं लाग ग्या । मरें पाछै ओ देव बण्या । भूंडे अर करड़े बिचारां आला राज्जा भी साद्ध के सतसंग तै कितणी सहन करण आला अर कितनी दया करण आला बण ग्या था! हरियाणवी जैन कथायें / 48
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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